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________________ १५ आनन्द से सुनता था, जिनेन्द्रदेव की पूजा करता था और तरह-तरह के इन्द्रियसुखों को भोग रहा था । एक दिन मेरे पूज्य पिताश्री मणिमय दर्पण में अपना मुख देख रह थे कि भृंग के समान काले-काले केशों में उन्हें एक धवल केश दिखाई पड़ा । जगत् के स्वरूप का चिन्तन एवं निन्दा करने वाले मेरे पूज्य पिता ने अपने मन में इस प्रकार विचार किया- 'आज मेरे मस्तक पर मृत्युराज की बड़ी बहिन ने आसन जमा लिया है । अथवा मुझे हितकारी धर्मामृत का उपदेश देने के लिए - यम के आगमन की सूचना लेकर कोई दूती ही मेरे पास आयी है और कह रही है कि उस यमरूपी शत्रु को हटाने के लिए आप जल्दी ही प्रयत्न करें, घर छोड़ें और तप रूपी आयुधों से शोभित चारित्र रूपी संग्राम-भूमि में चलकर यमसमर' को जीतें । आज ही मैं मोहरूपी महाभट को नाश करने के लिए दीक्षारूपी उस चक्र को लूंगा जो यमराज का समूल नाश करने वाली है और निश्चित ही मुक्ति ललना की सहेली है। जब तक जल के बबूले की भाँति आयु का क्षय नहीं होता है, जब तक इन्द्रियाँ भी शिथिल नहीं होती हैं और जब तक उद्यम भी नष्ट नहीं होता है तब तक विवेकशील आत्मज्ञानी पुरुषों को आत्महित करना चाहिए। जैसे संसार के प्राणी आग से जलने वाले घर से वित्त धन को बाहर निकाल लेते हैं उसी प्रकार जरा रूप अग्नि से जलने वाले शरीर से धर्म रूपी धन को ग्रहण करना चाहिए । इस वृद्धावस्था में कोन विवेकी आत्मज्ञानी राज्य में रति- आसक्ति करेगा, जो राज्य दुःखों का घर है, सर्वपापों का जनक है और अनेक चिन्ताओं को पैदा करने वाला है । जो लक्ष्मी इन्द्र धनुष की तरह देखते-देखते ही नाश होने वाली है, अनित्य है, मोह की जननी है, असन्तोष तथा तृष्णा को बढ़ाने वाली है - और साधुजनों द्वारा निन्दनीय है, वह लक्ष्मी विवेकियों को कैसे सन्तोष पैदा कर सकती है ? समस्त कुटुम्ब पाप का कारण है, इन्द्रधनुष की तरह विनश्वर है और धर्म पालन में विघ्न करने वाला है । ऐसे कुटुम्ब से भला किस बुद्धिमान का . मन रंजायमान होगा ? यम का सदन यह शरीर अखिल रोगों का खजाना है और काम रूपी सर्प का बिल है। भला यह निन्द्य, अशुचि शरीर आत्महितैषियों " को कैसे सुखकर होगा ? चतुर्गति रूप इस असार और दुःखमयी संसार में कौन आत्मचिन्तक अनुराग करेगा ? जैसे कालकूट ( हालाहल) के सेवन से मनुष्य इस लोक और परलोक में दुःख उठाते हैं उसी प्रकार रागी पुरुष तीव्र दुख के जनक पाँचों इन्द्रियों के सुखों को भोगकर नरक गति में जन्म लेते हैं। किसी समय दैवयोग से ईंधनों से आग तृप्ति हो जायेगी और नदियों के जलप्रवाह से समुद्र भी तृप्त हो जाएगा ।
SR No.002236
Book TitleYashodhar Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain
PublisherSanmati Research Institute of Indology
Publication Year1988
Total Pages184
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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