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________________ राज विमलवाहन अपनी राजकुमारी का परिणय आपके कुमार के साथ करना चाहते हैं ।" दूत के वचन सुनकर महाराज ने योग्य सम्बन्ध विचारकर सहर्ष अपनी स्वीकृति दे दी। दूत विवाह की लग्न और मुहम पूछकर प्रसन्न होता हुआ जल्दी ही अपने स्वामी के पास गया और अपने कार्य की सिद्धि का समाचार महाराज को कह सुनाया। राजा विमलवाहन स्वयं ही विशाल वैभव के साथ कन्या को लेकर अपने नगर से चले और चलकर कुछ ही दिनों में राजपुर नगर के उद्यान में पहुंचकर ठहर गये । राजा कीत्यौं घ ने भी अपने नगर के उद्यान में उतरने वाले अपने नये समधी रूप अतिथि का उनके योग्य सामग्री से आतिथ्य सत्कार किया। वर और वधू दोनों पक्षवालों ने नगर और उपवन में मांगलिक वाद्यों, . वंदनमालाओं और पताकाओं से सुन्दर सजावट की। मन्दिर में जाकर जिनेन्द्र का अभिषेक किया। विशाल सामग्री और भक्ति के साथ महाभ्युदय देने वाली जिनेन्द्र की पूजा की । (३६-४६) ___ स्नान कर, अलंकारों, सुन्दर-सुन्दर वस्त्रों, मालाओं और चन्दन से अपने आपको सजाकर, सौभाग्यवती स्त्रियों के साथ गीत, नृत्य, मान् उत्साह, अनेक प्रकार के वाद्यों तथा महान विभूति से युक्त होकर कन्या के गृह-उद्यान गये । साथ में महाराज भी थे। हे राजन् ! मैंने विवाह के वेश में सजी हुई कन्या को देखा जो दिव्य तथा सुन्दर वस्त्रों से सुशोभित थी। रमणीक अलंकारों से मंडित थी मानो दूसरी लक्ष्मी हो। तब पुरोहित ने बड़े आनन्दपूर्वक मुझे कन्या का हाथ पकड़ाया ओर मैंने भी अग्नि की साक्षीपूर्वक विधि के अनुसार कन्या का पाणिग्रहण किया। ____ मैंने विवाह के उत्सव में बन्धु, सामंतजन तथा दीन, अनाथ लोगों को यथा योग्य वस्त्र, आभरण और सम्मान द्वारा संतुष्ट किया। विशाल-विभूति-दहेज के साथ पुण्यफल स्वरूपा अपनी वधू को लेकर अपने नगर पहुंचा और अपने परिवार, परिजन और राजसमुदाय के साथ अपनी प्रिया को लेकर निज-मन्दिर में गया। इस प्रकार विवाह की विधि पूरी करके मेरे सभी परिजन विवाह से प्रसन्न होकर अपने-अपने नगर वापिस चले गये और मैं सुखपूर्वक जीवन-यापन करने लगा। उस समय अपनी रूपलावण्य वाली स्त्रियों के प्रेमरस से भरे हुए सुख रूपी सागर में मैं इस प्रकार डूबा कि हर्षातिरेक से बीता हुआ समय भी मैं नहीं जान सका। . सामन्त लोग भी मेरी सेवा करते थे (४७-५०)। संवेग के उत्पादक अहंतों के पुराण तथा चरित्रों को मैं बड़े ध्यान और
SR No.002236
Book TitleYashodhar Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain
PublisherSanmati Research Institute of Indology
Publication Year1988
Total Pages184
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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