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________________ १३. और इन्द्रादि पद पाते हैं (१२-२२) । इस प्रकार से शोभित उस उज्जयिनी नगरी में कीत्यौंध नाम का राजा था जो सब राजाओं का मुकुटमणि (श्र ेष्ठ) था; जिसकी कीर्ति समस्त दिग्मण्डल में फैल रही थी; वह त्यागी, भोगी, व्रती, कार्यकुशल, नीति-विद्या में विशारद, विद्वान, जिनभक्त, दयालु और सम्यग्दर्शनादिक गुणों से शोभित था, निरन्तर जिनेन्द्रदेव की पूजा करता था; सदा निर्ग्रन्थ गुरुओं की सेवा किया करता था तथा सुन्दर था; अलंकारों, वस्त्रों और सम्पदाओं से देव के समान शोभायमान था । उस राजा के चन्द्रमती नाम की शुभ लक्षणों वाली स्त्री थी जो रूपलावण्य रूपी सागर की राशि थी और वस्त्र और आभूषणों से सदा सुशोभित थी । उन दोनों के तरुण अवस्था में यशोधर नाम से प्रसिद्ध प्रथम पुत्र मैं पैदा हुआ । अपने यश से मैं प्रख्यात होने लगा । मेरी आकृति भी सौम्य और सुन्दर थी । (२३-२७) एक दिन मेरे पिताजी ने जैन मंन्दिर में भगवान् जिनेन्द्र के अभिषेक के साथ महामह पूजा करके, दीन, अनाथ और बन्दी जनों को अनेक प्रकार का दान देकर, अपने पुत्र का जन्म महोत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया । रूपलावण्यशाली वह बालक बालकों के योग्य दुग्धादिक पान करने से, पौष्टिक आहारों से तथा सेवा से चन्द्रकला की भाँति दिनों-दिन क्रमशः बढ़ने लगा। धीरे-धीरे वह कुमारावस्था को प्राप्त हुआ | दिव्य वस्त्रालंकारों, दीप्ति, कांति और मधुरवाणी से यशोधर कुमार देवकुमारों की भाँति शोभायमान होने लगा । राजा ने शुभ दिन और शुभ मुहुर्त में देव, शास्त्र और गुरु की भक्तिपूर्वक पूजा करके कुमार की शिक्षा-दीक्षा के लिए उसे आचार्यों के पास भेज दिया। राजा ने कुमार की प्रज्ञा, . मेधा और प्रतिभा बढ़ाने के लिए एक बड़ा महोत्सव भी किया । वह बुद्धिमान कुमार थोड़े ही दिनों में गुरुओं की विनय से तथा अपने परिश्रम से शास्त्र, अर्थ, विद्या, अस्त्र और कलारूपी समुद्र का पारगामी विद्वान गया। (२८-३५) अब महाराज को ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न तरुणावस्था में पदार्पण करने वाले कुमार के विवाह की चिन्ता होने लगी । एक दिन महाराज जब राजसभा में विराजमान थे, प्रतिहार एक दूत को अन्दर लाया । वह दूत पास में आकर अपनी प्रयोजन-सिद्धि के लिए महाराज से मधुर वचन बोला - " रमणीय वाराट नामक देश में विमलवाहन नाम से प्रसिद्ध राजा है और उसकी शीला नाम की रानी है । उन दोनों के रूपलावण्य से शोभित मनोहर अमृतमती नाम की कन्या है जिसकी आकृति सुन्दर और सौम्य है और सामुद्रिक शास्त्र के शुभ लक्षणों से से अलंकृत है । हे राजन्, यदि आपकी आज्ञा हो तो वाराट प्रदेश के नरेश महा
SR No.002236
Book TitleYashodhar Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain
PublisherSanmati Research Institute of Indology
Publication Year1988
Total Pages184
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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