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________________ १६ लेकिन इस रागी की इन्द्रियाँ सुखों से कभी भी तृप्त नहीं होगीं। इस असार संसार में कर्मेन्द्रिय से जो कुछ शरीर आदिक प्राप्त हुआ है; फेन के समान है, सारहीन है और चंचल है । पुरातन पुरुष चक्रवर्ती, तीर्थंकर, नारायण आदिक महापुरुषों ने सही विचार कर साँप की केंचुली की तरह, दुखकारक राज्य, वैभव आदिक छोड़ दिया और तप तपकर मोक्षलक्ष्मी का सुख प्राप्त किया (५७-७३) ।' इस प्रकार वह विवेकी राजा निरन्तर चित्त में द्वादश भावनाओं का चिन्तवन करने लगा, कभी बार-बार संसार की विचित्र दशा का विचार करता और सोचता कि मोक्ष ही जीवों का शरण्य रक्षक है । इस प्रकार कीत्यौघ महाराज के चित्त में निरन्तर बारह भावनाओं के स्वरूप चिन्तन करने पर धन आदिक सांसारिक वस्तुओं से वैराग्य दिन पर दिन बढ़ने लगा। उधर अवसर पाकर मानो काललब्धि भी प्राप्त हो गयी। इसके बाद महाराज कीत्यौघ ने विधिपूर्वक समस्त विभूति के साथ राज्य मुझे समर्पण किया और स्वयं अन्तरंग और बहिरंग दोनों प्रकार का परिग्रह छोड़कर जैन दीक्षा धारण कर ली और निरन्तर निर्दोष तप, ज्ञानाम्यास, ध्यान, इन्द्रियों का दमन और कषायों पर विजय आदिक करते हुए सभी देशों में विहार करने लगे । ( ७४-७७) । - उस समय मेरे पूर्व अर्जित पुण्योदय से रथ, अश्व, गज, पदाति, पृथ्वी आदिक सम्पत्ति क्रम-क्रम से बढ़ने लगी। उन्हीं दिनों महारानी अमृतमती से तरुण अवस्था में यशोमति नामक पुत्र पैदा हुआ जो रूपलावण्य से युक्त था, शरोर में शुभ लक्षणों से मंडित था । योग्य, पौष्टिक आहार और सेवा सुश्रुषा के होने से वह द्वितीया के चन्द्र की तरह क्रम-क्रम से बढ़ने लगा। कुमार अवस्था को प्राप्त कर और अच्छी बुद्धि तथा प्रतिभा के बल से अखिल विद्याओं में निपुण हो गया । यशोमति जवानी पाकर पूर्व पुण्योदय से सैकड़ों राजकन्याओं के साथ विधिपूर्वक विवाह कर विषय-सुख भोगने लगा । उस समय राजमण्डल से सेवित अपनी प्रियाओं के साथ सन्तोषजनक सुखों का भोग भोगते हुए मैंने बीता हुआ समय नहीं जाना । बहुत से सामन्त और नृपगण मेरे चरणों में प्रणाम करते थे, इस लोक में अति भयानक और पंकिल रणांगण में मैंने वैरीवर्ग को जीतकर अपना प्रताप प्रकट किया, पूर्व संचित पुण्य कर्म के उदय से राजगणों ने मेरी अनुपम सेवा 1 की । भलीभाँति राज्य का पालन कर निजाधीन सुख रूपी समुद्र में निरन्तर डूबा रहा। ( ७८-८३) ।
SR No.002236
Book TitleYashodhar Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain
PublisherSanmati Research Institute of Indology
Publication Year1988
Total Pages184
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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