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________________ जैसे ही गण के नायक मुनिवर सुदत्ताचार्य ईर्यापथ की शुद्धि करके सुख-पूर्वक अपने आसन पर बैठे , उसी समय अभयमती के साथ अभयरुचि नामक क्षुल्लक आचार्य के चरणकमलों में नमस्कार कर, भिक्षा के लिए उनसे आज्ञा लेकर राजपुर नगर में गये। (५३-६८) पात्र को हाथ में लेकर मार्ग में जाते हुए उस क्षुल्लक-युगल को पापी मारिदत्त के उन भटों ने देखा। वह क्षुल्लक-युगल खण्डवस्त्रों से शोभित था । उसके चेहरे से प्रसन्नता टपक रही थी; वह गम्भीरता का साक्षात अवतार था, रूप में, कामदेव को भी लज्जित कर रहा था, मार्ग में ईर्या समिति का पालन करते हुए मार्ग को आगे देख-देखकर चल रहा था तथा चित्त में वैराग्य की भावना लिये आगे बढ़ता जा रहा था । उन सुभटों ने परस्पर में विचार किया कि यह नर-युगल,. देवी चण्डीमारी की पूजा और शान्ति विधि के योग्य है, यह सोचकर दोनों को पकड़ लिया । भीरु प्राणियों को भय के जनक उन हत्यारे भटों के कठोर वचन सुनकर, क्षुल्लक अमयरुचि अपनी बहिन को आश्वासन देता हुआ यह मनोहारी. वचन बोला___ "बहिन ! डरो मत, संसार से विरक्त हमे संयमी जनों का कोई क्या कर सकता है ! अति खल यम भी रुष्ट हो जाये तो वह भी हम साधु-संन्यासियों का बाल बांका नहीं कर सकता। सांसारिक दुःखों से दुःखित मानव दुःख-शान्ति के लिए निर्दोष तप किया करते हैं और आर्य तपोजन्य उपसर्ग जीतने में समर्थ होते हैं । हम दोनों पूर्वोपार्जित कर्मों को सहर्ष तप से उदय में लाकर नाश करें।" जिस देश और काल में कर्म के उदय से जो सुख और दुःख प्राप्त होने वाला है उसे अवश्य ही भोगना चाहिए । इसमें हर्ष और शोक करने की कोई बात नहीं । इस अनादि संसार में हम दोनों ने अनन शरीर धारण कर उन्हें छोड़ दिया। यदि पुन: उसी प्रकार इस शरीर को छोड़ना पड़ा तो इसमें दुःख करने की कौन. सी बात है किन्तु हमें गुणों की ही रक्षा करनी चाहिए। असाता वेदनीय कर्म के उदय से होने वाले दुःखों में धर्म को छोड़कर और कोई दूसरा शरण नहीं,रक्षक नहीं। इसीलिए तुम्हें और मुझे अपने अभीष्ट कार्य की सिद्धि के लिए उस धर्म की ही शरण लेनी चाहिए। (६६-७७) ___ भाई के वचन सुनकर बहिन बोली, "क्या यह बात आप भूल गये, आज उसका स्मरण नहीं आता? पूर्व-पापजन्य दुःख निरन्तर श्वानादिक भवों में भोगे हैं । जो उपसर्ग द्वारा अनन्त दु:ख के कारणभूत हमारे पूर्वकर्मों का नाश करता है, वह हमारा महान् उपकारक बन्धु है और यही कार्य करने से ही वह हमारा बन्धु बना है । सूर्य अपना तेज छोड़ दे और सुमेरु पर्वत भी अपनी स्थिरता छोड़ दे लेकिन जिनेन्द्र भगवान् के चरणकमलों में दृढ़ स्थित चित्त चलायमान नहीं
SR No.002236
Book TitleYashodhar Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain
PublisherSanmati Research Institute of Indology
Publication Year1988
Total Pages184
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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