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________________ - राजा ने सपरिवार उस देवी को नमस्कार किया और आकाशगामिनी विद्या की सिद्धि के लिए कोतवाल से बोला-"नगर में जाकर शीघ्र ही ऐसे नर-युगल को ले आओ, जो सन्दर और सर्वलक्षणों से युक्त हो।" तदनुसार नर-युगल लाने के लिए क्रूर तथा दुष्ट सुभट चारों दिशाओं में गये । (४३-५२) इसी समय तपोनिधि, विवेकी आचार्य सुदत्त अपने विशाल मुनिसंघ के साथ अनेक देशों में धर्मामृत की वर्षा करते हुए जीवों का हित करने के लिए राजकुमार के बाह्य उद्यान में पधारे । उन मुनियों का शरीर दुई र तप से कृश हो गया था। वे विशाल गुणों के भण्डार थे, धीर थे; बहिरंग और अंतरंग परिग्रह से रहित थे; उच्चतम और परम पावन विचारों से सम्पन्न थे; शून्य निर्जन घर, गुफा, अरण्य और श्मशान आदिक स्थानों में निवास करते थे; जिन्होंने सूक्ष्म लोभ की वासना को भी जीत लिया था; मोक्ष-लक्ष्मी के सुख पाने को लालायित थे; क्षमाशील, कर्मविजयी और इन्द्रिय-संयमी, ध्यानी, स्वाध्यायी, समताभावी और शुभ-परिणामी थे; मान-अपमान और सुख-दुःख में हर्ष-विषाद से रहित थे; परीषह जीतने में धीर-वीर थे और काय-क्लेश सहने में समर्थ थे; द्वादशांग रूपी सागर का अवगाहन कर चुके थे; चारों प्रकार के धर्म-ध्यान, शुक्ल ध्यान में सदा लवलीन रहते थे; प्राणी मात्र पर दयादृष्टि वाले थे; भव्य जीवों को निरन्तर धर्मोपदेश देते रहते थे। रत्नत्रय से उनकी आत्मा शोभायमान थी; वे सभी प्रकार के शरीर के संस्कारों से विरहित थे; पाप के अंश से भी निरन्तर भयभीत रहा करते थे; असंख्य गुणों के सागर थे; मल और उत्तर गुणों को पालने वाले थे और बड़े भारी तत्त्वज्ञानी थे। ऐसे आचार्य सूदत्त राजनगर के बाहर बन में अपने संघ के साथ आये। यह वन वृक्षों की सघन पंक्ति से, शीतल छाया से परिपूर्ण था; विलासीजन उसका निरन्तर सेवन करते थे और वह सभी जीवों के चित्त को लुभाने वाला था। यह उद्यान ललनाओं के आगमन से भरा रहता था। कामी, विलासीजन यहाँ पर भ्रमर की तरह निरन्तर मँडराया करते थे। अतः यह उद्यान इन्द्रियों को रागी बनाने में कुशल था। विलासी और रागियों को तो यह आराम-क्रीडा के योग्य था पर ब्रह्मचारी, साधु और तपस्वियों के रहने योग्य नहीं था । यह सोचकर आचार्य सुदत्त शीघ्र ही वह वन छोड़कर समीपस्थ श्मशानभूमि में चले गये।। उस श्मशान को देखकर पापी और भीरु भयभीत होते थे; उसकी भूमि शवों की आग से जली हुई तथा तपस्वीजनों के वैराग्य प्रभृति गुणों को बढ़ाने वाली थी। विशाल संघ के साथ आचार्य सुदत्त श्मशान के स्वच्छ, जन्तुरहित और ज्ञान, ध्यान के योग्य स्थान में आकर ठहर गये । वह स्थान रुधिर, अस्थि, शव आदि अपवित्र वस्तुओं से विरहित था तथा जीव-जन्तुषों की बाधा से दूर था।
SR No.002236
Book TitleYashodhar Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain
PublisherSanmati Research Institute of Indology
Publication Year1988
Total Pages184
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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