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________________ था, स्वेच्छाचारी था और सुखलोलुपी था। . उस राजपुर नगर में किसी समय क्रूर, विशाल आडम्बर से युक्त भैरवानंद नाम का कापालिक आया। उसके सिर पर जटा-जूट और हाथ में दण्ड था। वह चर्म, हड्डी तथा भस्म से शोभायमान था। अत्यन्त रौद्र, विषयासक्त तथा प्रवंचक था, कन्था तथा चरणपादुका से युक्त था, सींगों को बजाकर भयंकर आवाज करता था और सपरिवार असदाचार में उद्यमशील रहता था। भैरवानंद कापालिक लोगों से कहने लगा-"इस देश में मैं ही चिरंजीवी हूँ, मैंने सभी युग औरं. राम आदि से लेकर पांडव प्रभृति सभी महापुरुष देखे हैं।" महाराज मारिदत्त ने भैरवानंद की गर्वोक्ति सूनकर मंत्रियों की ओर देखा और उनसे विचार-विमर्श कर उस मायावी कापालिक को बुलाया। वह कापालिक भी जल्दी ही अजनवी . ढंग से महाराज के पास आ गया । महाराज मारिदत्त ने उठकर सम्मान के साथ उसे नमस्कार किया और बैठने के लिए आसन दिया । उसी समय असत्यवादन में कुशल वह भैरवानंद महाराज मारिदत्त को लक्ष्य कर बोला- "मैंने बलप्रभृति सब पुगतन महापुरुष देखे हैं। संसार की सब विद्याओं को जानता हूँ, मनुष्यों के निग्रह और अनुग्रह करने में मैं समर्थ हूँ और कोई भी कार्य मेरे लिए असाध्य नहीं है ।" कापालिक के वचन सुनकर राजा मारिदत्त ने कौलिक से कहा, "मुझे आकाशगामिनी विद्या दो जिससे मैं स्वेच्छानुसार आकाश में घूम सकू।" महाराज के वचन सुनकर भैरवानंद बोला, "हे राजन् ! आप जिन-जिन चीजों को चाहते हैं मैं वे सब वस्तुएं आपको दंगा। बस, मैं जो-जो कहूँ, आप निडर होकर और अन्य सभी के वचनों की उपेक्षाकर वह कार्य करें क्योंकि आप सब कुछ करने में समर्थ हैं । (२६-४२) "राजपुर नगर की दक्षिण दिशा में चण्डमारी देवी का मन्दिर है । आप देवी के उस मन्दिर में सुन्दर मनुष्य-युगल के साथ, जलचर, स्थलचर, नभचर जीवों को देवी की पूजा के लिए लायें । उन सब जीवों की बलि देने से आपको शीघ्र ही आकाशगामिनी विद्या सिद्ध हो जायेगी।" जैसे उन्मत्त पुरुष रत्नों की परीक्षा नहीं जानता, उसी प्रकार विवेकहीन राजा भी सच्चे और मिथ्या धर्म की परीक्षा करना नहीं जानता। विवेकहीन राजा ने कौलिक के वचनों का विश्वास कर अपने सेवकों को आज्ञा दी कि चण्डमारी देवी के मन्दिर में शीघ्र ही विविध जीवों के युगलों को लाओ । मारिदत्त राजा अपने परिवार के साथ चण्डमारी देवी के मठ में गया। अज्ञानी जन उस देवी की आराधना करते थे । उसकी आखें अत्यन्त विकराल थीं मानो पाप कर्म के उदय से जीवों का वध करने के लिए बनायी गयी हैं। उसकी आकृति कुरूप और निंदनीय थी।
SR No.002236
Book TitleYashodhar Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain
PublisherSanmati Research Institute of Indology
Publication Year1988
Total Pages184
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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