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________________ जैन-न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान स्थितोऽपि चक्षुषा रूपम् ।।” यह वाक्य प्रमाणवार्तिक से उद्धृत है। ५४वीं कारिका की विवृति में ___ “तिमिराशुभ्रमणनौयानसंक्षोभादि।" यह पद धर्मकीर्ति के न्यायबिन्दु से उद्धृत है। तत्त्वार्थवार्तिक- अध्याय १ सूत्र १ की व्याख्या में धर्मेण गमनमूर्ध्वं गमनमधस्ताद् भवत्यधर्मेण। ___ ज्ञानेन चापवर्गो विपर्ययादिष्यते बन्धः ।। यह श्लोक साँख्यकारिका से उद्धृत हुआ है। दुःखजन्मप्रवृत्तिदोषमथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तराभावान्निश्रेयसाधिगमः ।।१/१/२।। यह सूत्र महर्षि गौतम के न्यायसूत्र से उद्धृत है। ___“अविद्याप्रत्ययाः संस्काराः” . यह वाक्य बौद्धों के शालिस्तम्बसूत्र से उद्धृत है। इस वाक्य में बौद्धों के द्वादशांग प्रतीत्यसमुत्पाद का विवेचन किया गया है। प्रतीत्यसमुत्पाद को भवचक्र भी कहते हैं। रूपवेदनासंज्ञासंस्कारविज्ञानपञ्चस्कन्धनिरोधादभावो मोक्षः । इस वाक्य में बौद्धों के पञ्चस्कन्धों का नाम आया है। बुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नधर्माधर्मसंस्कारनवात्मगुणात्यन्तोच्छेदो मोक्षः। इस वाक्य में वैशेषिकों के मतानुसार आत्मा के ६ विशेष गुणों का उल्लेख है। तत्त्वार्थवार्तिक अध्याय १ सूत्र ४ की व्याख्या में बुद्धिपूर्वी क्रियां दृष्ट्वा स्वदेहेऽन्यत्र तद् गृहात्। मन्यते बुद्धिसद्भावः सा न येषु न तेषु धीः।। यह श्लोक धर्मकीर्ति के ग्रन्थ 'सन्तानान्तर सिद्धि' से उद्धृत है। अध्याय १ सूत्र ५ की व्याख्या मेंकृत्रिमाकृत्रिमयोः कृत्रिमे संप्रत्ययो भवति। १-१-५२ गौणमुख्ययोः मुख्ये संप्रत्ययः। ८/३/८२ अनन्तरस्य विधिर्वा प्रतिषेधो वा । १/२/४७ ये सूत्र प्रसिद्ध वैयाकरण पतञ्जलि के पातञ्जल महाभाष्य से उद्धृत हैं। पातञ्जल महाभाष्य के अनेक सूत्रों के अतिरिक्त अकलंक ने तत्त्वार्थवार्तिक में अनेक
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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