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________________ अकलंकदेव का दर्शनान्तरीय अध्ययन परिहास किया गया है। इस प्रकार शालीनतापूर्वक उत्तर देने की प्रक्रिया से अकलंकदेव के आलोचनाकौशल्य का सहज ही अनुमान किया जा सकता है अकलंक देव के ग्रन्थों में उद्धृत वाक्य : I अब मैं अकलंक के दर्शनान्तरीय अध्ययन को संक्षेप में बतलाने के लिए अन्य दर्शनों के ग्रन्थों से उन वाक्यों के उद्धरण प्रस्तुत करूँगा, जिन वाक्यों को अकलंक ने अपने ग्रन्थों में उद्धृत किया है। अष्टशती- कारिका ५३ की वृत्ति में न तस्य किञ्चित् भवति न भवत्येव केवलम् । यह पद धर्मकीर्ति के प्रमाणवार्तिक से उद्धृत किया है। कारिका ७६ की वृत्ति में युक्त्या यन्न घटामुपैति तदहं दृष्ट्वापि न श्रद्दधे । यह श्लोकांश किसी अन्य ग्रन्थ से उद्धृत किया है। कारिका ८० की वृत्ति में 59 . सहोपलंभनियमादभेदो नीलतद्धियोः । यह पद धर्मकीर्ति के प्रमाणविनिश्चय से उद्धृत है। कारका ८६ की वृत्ति में तादृशी जायते बुद्धिर्व्यवसायश्च तादृशः । सहायास्तादृशाः सन्ति यादृशी भवितव्यता । यद्यपि यह श्लोकं तथा चोक्तं लिखकर उद्धृत किया गया है, किन्तु अब यह सुनिश्चित हो गया है कि उक्त श्लोक इतिहास प्रसिद्ध चाणक्य की पुस्तक ‘नीतिदर्पण’ उद्घृत हुआ है। से. कारिका १०६ की वृत्ति में तथा चोक्तं लिखकर निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किया है अर्थस्यानेकरूपस्य धीः प्रमाणं तदंशधीः । नयो धर्मान्तिरापेक्षी दुर्णयस्तन्निराकृतिः ।। न्यायविनिश्चय आठवीं कारिका की विवृकि में- “अर्थक्रियासमर्थं परमार्थसत् ।” ऐसा उल्लेख धर्मकीर्ति के प्रमाणवार्तिक से किया है। २३वीं कारिका की विवृति में - “सर्वतः संहृत्य चिन्तां स्तिमितेनान्तरात्मना ।
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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