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जैन-न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान
प्रलाप है वह खंडित हो जाता है क्योंकि उसमें भी एकान्तवाद की संभावना होने से . स्यात् शब्द का प्रयोग अयुक्त, अश्लील और आकुल रूप है।
धर्मकीर्ति के इस कथन पर अकलंक ने न्यायविनिश्चय में जो उत्तर दिया है उसे
देखिए
ज्ञात्वा विज्ञिप्तिमात्रं परमपि च बहिर्भासिभावप्रवादम्। चक्रेलोकानुरोधात् पुनरपि सकलं नेति तत्त्वं प्रपेदे।। न ज्ञाता तस्य तस्मिन् न च फलमपरं ज्ञायते नापि किञ्चित् । इत्यश्लीलं प्रमत्तः प्रलपति जड़धीराकुलः व्याकुलाप्तः ।।
अर्थात् बौद्धों में कोई विज्ञप्तिमात्र तत्त्व को मानते है और कोई बाह्य पदार्थ भी मानते हैं। किन्तु शून्यवादी कहते हैं कि न बाह्य तत्त्व हैं और न आभ्यन्तर तत्त्व हैं. तथा न उनको जानने वाला कोई है और न उसका कोई फल है। इस प्रकार अश्लील (परस्पर विरुद्ध) कथन तो वही कर सकता है जो उन्मत्त, जड़बुद्धि और व्याकुलं है।. यहाँ पूर्वोक्त श्लोक की अन्तिम पंक्ति ध्यान देने योग्य है, जिसमें धर्मकीर्ति के आक्षेप का उत्तर उन्हीं के शब्दों में दिया गया है।
धर्मकीर्ति ने पुनः अनेकान्तवाद का उपहास करते हुए कहा है कि अनेकान्तवादियों का एक को अनेक और अनेक को एक कहना बड़ी ही विचित्र बात है। अकलंक देव ने इस कथन का प्रत्युपहास करते हुए न्यायविनिश्च में लिखा है
चित्रं तदेकमिति चेदिदं चित्रतरं ततः ।
चित्रं शून्यमिदं सर्वं वेत्ति चित्रतमं ततः ।। अर्थात् एक को अनेक और अनेक को एक कहना धर्मकीर्ति को एक विचित्र सिद्धान्त प्रतीत होता है किन्तु दृश्यमान् इस जगत् को शून्य कहना तो उससे भी बढ़कर एक विचित्र सिद्धान्त है। और इस विचित्र सिद्धान्त को आप सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं।
बौद्धमतानुयायी विज्ञानाद्वैतवादी कहते हैं कि हमारा अद्वैत तत्त्व न तो किसी से उत्पन्न होता है और न कुछ करता ही है। इस कथन पर अकलंक का उत्तर देखिए
न जातो न भवत्येव न च किंचित् करोति सत्।
तीक्ष्णं शौद्धोदनेः शृङ्गमिति किन्न प्रकल्यते।। अर्थात् यदि आपका संवेदनाद्वैत न तो उत्पन्न होता है और न कुछ कार्य ही करता है फिर भी वह है तो बुद्ध के मस्तक पर एक ऐसा तीक्ष्ण सींग भी क्यों नहीं मान लेते जो न उत्पन्न होता है और न कुछ कार्य करता हैं। यहाँ कितना युक्तिपूर्ण