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________________ अकलंकदेव का दर्शनान्तरीय अध्ययन इष्टं तत्त्वमपेक्षातो नयानां नयचक्रतः । < 57 आलोचन कौशल्य : अन्य दार्शनिकों की आलोचना करते समय धर्मकीर्ति आदि बौद्ध दार्शनिकों ने विपक्षियों के लिए अपने ग्रन्थों में जड़, जड़मति, पशु, अनीक (निर्लज्ज ) आदि अपशब्दों का प्रयोग किया है। जैनों के लिए तो अनीक शब्द का प्रयोग विशेष रूप से हुआ है क्योंकि उनके साधु नग्न होते हैं, किन्तु निर्मलमना अकलंकदेव द्वारा की गयी विपक्षियों की आलोचना में उस कटुता के दर्शन नहीं होते। उन्होंने प्रायः प्रतिपक्षी का उत्तर उसी के शब्दों में दिया है और कहीं प्रतिपक्षी की भूल को पकड़कर उसका उपहास करते हुए उत्तर दिया है । धर्मकीर्ति जैनदर्शन के अनेकान्तवाद का खण्डन करते हुए लिखते हैंसर्वस्याभमयरूपत्वे तद्विशेषनिराकृतेः। चोदितो दधि खादेति किमुष्ट्रं नाभिधावति ।। अर्थात् यदि प्रत्येक वस्तु उभयात्मक है और उसमें कोई विशेषता नहीं है तो दधि को खाने के लिए कहा गया मनुष्य ऊँट को खाने के लिए क्यों नहीं दौड़ता ? धर्मकीर्ति के इस कथन पर न्यायविनिश्चय में अकलंक का उत्तर देखिएपूर्वेपक्षमविज्ञाय दूषकोऽपि विदूषकः । सुगतोऽपि मृगो जातः मृगोऽपिसुगतः स्मृतः । तथापि सुगतो वन्द्योमृगो खाद्यो यथेष्यते ।।. तथा वस्तुबलादेव भेदाभेदव्यवस्थितेः। चोदितो दधि खादेति किमुष्ट्रमभिधावति ।। अर्थात् पूर्वपक्ष (जैनदर्शन) को ठीक न समझने के कारण दूषण देने वाला . धर्मकीर्ति विदूषक (हँसी का पात्र) ही है क्योंकि पूर्व पर्याय में सुगत (बुद्ध) मृग हुए थे और वह मृग भी सुगत हुआ। फिर भी बौद्ध पर्याय-भेद से सुगत की वन्दना करते हैं और मृग को खाद्य मानते हैं। ठीक उसी प्रकार पर्याय-भेद से दही और ऊँट के शरीर में भेद है। अतः दही को खाने के लिए कहा गया मनुष्य दही को ही खाता है, ऊँट को नहीं। यहाँ दूषकोऽपि विदूषकः यह कथन ध्यान देने योग्य है । धर्मकीर्ति पुनः स्याद्वाद के सिद्धान्त पर आक्षेप करते हुए कहते हैंएतेनैव यत्किञ्चिदयुक्तमश्लील माकुलम्। प्रलपन्ति प्रतिक्षिप्तं तदप्येकान्तसम्भवात् ।। अर्थात् साँख्यमत के खण्डन से ही जैनदर्शन का जो किंचित् (स्यात्) शब्द का
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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