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________________ अकलंकदेव का दर्शनान्तरीय अध्ययन स्थलों पर पातञ्जल महाभाष्य से अनेक उदारहण और पंक्तियाँ भी उद्धृत की हैं। . यथा- न चान्यार्थं प्रकृतमन्यार्थं भवतीति। अन्यार्थमपि प्रकृतमन्यार्थं भवति। तद् यथा-शाल्यर्थं कुल्याः प्रणीयन्ते, ताभ्यश्च पानीयं पीयते उपस्पृश्यते च, शालयश्च भाव्यन्ते। तद् यथा-कतरद् देवदत्तस्य गृहम् ? अदो यत्रासौ काकः, इति उत्पतिते काके नष्टं तद् गृहं भवति। अध्याय १ सूत्र ६ की व्याख्या मेंवचनविघातोऽर्थविकल्पोपपल्या छलम्। १।२।१० यह सूत्र न्यायसूत्र के उद्धृत है। अध्याय १, सूत्र ८ की व्याख्या में-द्रव्याणि द्रव्यान्तरमारभन्ते। १।१।१० आत्मेन्द्रियमनोऽर्थसन्निकर्षात्यन्निष्पद्यते तदन्यत्। ३।१।१८ क्रियावत् गुणवत् समवायिकारणमितिद्रव्यस्य लक्षणम्। १।१।१५ ये सूत्र महर्षि कणाद के वैशेषिकसूत्र से उद्धृत हैं अध्याय १, सूत्र १२ की व्याख्या में- . - प्रत्यक्षं कल्पनापोढं नामजात्याद्यसंयुक्तम्। .. ' असाधारणहेतुत्वादक्षैस्तद् व्यपदिश्यते।। यह श्लोक बौद्ध नैयायिक दिङ्नाग के प्रमाणसमुच्चय से उद्धृत है। ___ सवितर्कविचाराः हि पञ्चविज्ञानधातवः। निरूपणानुस्मरणविकल्पेनाविकल्पकाः ।। ::' यह श्लोक वसुबन्धु के अभिधर्मकोश से उद्धृत है। “षण्णामनन्तरातीतं विज्ञानं यद्धि तन्मनः।" यह वाक्य भी अभिधर्मकोश से उद्धृत है। इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेशमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम्। १/१/४ यह सूत्र गौतम के न्यायसूत्र से उद्धृत है। सत्सम्प्रयोगे पुरुषस्येन्द्रियाणां बुद्धिजन्म तत्प्रत्यक्षम् ।। १/१/४ यह सूत्र महर्षि जैमिनि के मीमांसासूत्र से उद्धृत है। __ “निर्वाणं द्विविधं सोपधिविशेष निरुपधिविशेषं च। तत्र सोपधिविशेषे निर्वाणे 'बोद्धाऽस्ति।" __ यह वाक्य किसी बौद्ध ग्रन्थ से उद्धृत है। शास्त्रेषु प्रक्रियाभेदैरविद्यैवोपवर्ण्यते। अनागमविकल्पा हि स्वयं विद्या प्रवर्तते।
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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