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________________ 54 जैन - न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान शास्त्रज्ञानं तथैव स्यात् सामग्रीगुणदोषतः । अविरोधेऽपि नित्यस्य भवेदन्धपरम्परा ।। तदर्थदर्शिनोऽभावान्म्लेच्छादि व्यवहारवत् । सृष्टिकर्तृत्व विचार : इस जगत् में कोई सृष्टिकर्त्ता है या नहीं ? नैयायिक - वैशेषिक कहते हैं कि ईश्वर इस जगत् का सृष्टिकर्त्ता है । वे अनुमान प्रमाण से ईश्वर में सृष्टिकर्तृत्व सिद्ध करते हैं। वह अनुमान इस प्रकार है- तनुकरणभुवनादयः बुद्धिमन्निमित्तकाः कार्यत्वात्, घटवत्। शरीर, इन्द्रिय, पृथिवी, पर्वत आदि का कर्त्ता कोई बुद्धिमान् अवश्य है क्योंकि ये सब कार्य हैं। जो कार्य होता है उसका कर्त्ता कोई अवश्य होता है, जैसे घट का कर्त्ता कुम्भकार है। ईश्वर में सृष्टिकर्तृत्व सिद्ध करने के लिए अचेतनोपादानत्व, सन्निवेशविशिष्टत्व आदि और भी हेतु दिये जाते हैं । अकलंकदेव ने सृष्टिकर्तृत्व का युक्तिपूर्वक निराकरण किया है। उन्होंने अष्टती में कार्यत्व आदि हेतुओं में असिद्ध, विरुद्ध आदि अनेक दोष बतलाकर ईश्वर-साधक अनुमान का बाधक एक दूसरा अनुमान प्रस्तुत किया है, जो इस प्रकार है- अकृत्रिमं जगत् दृष्टकर्तृकविलक्षणत्वात् । इस जगत् का कोई कर्त्ता नहीं है, क्योंकि जिनका कर्ता देखा गया है उनसे यह जगत् विलक्षण है। संसार में दो प्रकार की वस्तुएँ देखी जाती हैं- दृष्टकर्तृक और अदृष्टकर्तृक । घटपटादि पदार्थ दृष्टकर्तृक हैं और शरीर, पृथिवी आदि पदार्थ अदृष्टकर्तृक हैं । इन दोनों प्रकार के पदार्थों में 'विलक्षणता पाई जाती है । अतः दृष्टकर्तृक घटादि से विलक्षण होने के कारण शरीर आदि का कोई कर्त्ता नहीं है, ऐसा सिद्ध होता है। इस प्रकार 'अकृत्रिमं जगत्' इत्यादि अनुमानं से बाधित होने के कारण नैयायिकों का पूर्वोक्त अनुमान बाधित हो जाने से यह सिद्ध होता है कि इस जगत् का कोई कर्त्ता नहीं है और यह अनादि से ऐसा ही चला आया है। सर्वज्ञमीमांसा : मीमांसकों ने सर्वज्ञ को नहीं माना है । यद्यपि कुमारिल ने पहले इतना ही कहा कि कोई पुरुष धर्मज्ञ नहीं हो सकता है, यदि वह संसार के समस्त पदार्थों को जानता है तो इसमें हमें कोई आपत्ति नहीं है । तथाहि धर्मज्ञत्वनिषेधस्तु केवलोऽत्रोपयुज्यते । सर्वमन्यद् विजानंस्तु पुरुषः केन वार्यते ।। लेकिन इतना कहने के बाद भी मीमांसकों ने सर्वज्ञत्व के निषेध में अपनी पूरी शक्ति लगा दी। उन्होंने कहा कि कोई पुरुष सर्वज्ञ नहीं हो सकता है, क्योंकि वह पुरुष
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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