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अकलंकदेव का दर्शनान्तरीय अध्ययन
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वेदापौरुषेयत्व विचार : • मीमांसकों का मत है कि वेदों का कोई कर्त्ता नहीं है। वेद तो अनादिकाल से इसी रूप में चले आये हैं। उन्होंने यह भी बतलाया है कि धर्म में वेद ही प्रमाण हैं, पुरुष नहीं। सूक्ष्म आदि अतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञान भी वेद से ही होता है। इस विषय में कुमारिल ने मीमांसाश्लोकवार्तिक में कहा है
वेदस्याध्ययनं सर्वं तदध्ययनपूर्वकम्।
वेदाध्ययनवाच्यत्वादधुनाध्ययनं यथा।। वेदों का अध्ययन अनादिकाल से वेदाध्ययनपूर्वक ही चला आया है। ऐसा कोई पुरुष नहीं है जिसने वेदों को बनाया हो और इसका अध्ययन कराया हो। वेदों के कर्ता का स्मरण भी नहीं होता है। यदि वेदों का कोई कर्ता होता तो उसका स्मरण
अवश्य होता। रागादि दोषों से दूषित होने के कारण पुरुष वेद का कर्ता हो भी नहीं सकता है। वेद तो अतीन्द्रियार्थदर्शी हैं और पुरुष कभी भी अतीन्द्रियार्थदर्शी हो नहीं सकता- इत्यादि प्रकार से मीमांसकों ने वेदों को अपौरुषेय सिद्ध करने का प्रयत्न किया
इस विषय में अकलंकदेव कहते हैं कि यदि वेद अपौरुषेय हैं और अतीन्द्रियदर्शी कोई पुरुष नहीं है तब जैमिनी आदि को भी वेदार्थ का पूर्ण ज्ञान कैसे होगा। क्योंकि वेदवाक्यों का यह अर्थ है और यह अर्थ नहीं है, ऐसा शब्द तो कहते नहीं है। अतः वेदों के अर्थ का ज्ञान होना कैसे संभव है। किसी के कर्ता का स्मरण न होने से भी . कोई अपौरुषेय सिद्ध नहीं हो जाता है। ऐसे बहुत से जीर्ण खण्डहर (भग्नावशेष)
आदि पदार्थ हैं जिनके कर्ता का स्मरण किसी को नहीं है तो क्या इससे वे अपौरुषेय हो जायेंगे। लोक में ऐसे अनेक म्लेच्छादिव्यवहार पाये जाते हैं जिनके विषय में यह .. ज्ञात नहीं है कि उन्हें किसने प्रचलित किया। तो क्या वे सब इतने मात्र से अौरुषेय कहलाने लगेंगे। वास्तव में यदि कोई भी पुरुष वेदार्थ का द्रष्टा या ज्ञाता नहीं है तब तो वेद के अध्ययन या ज्ञान में अन्धपरम्परा का ही अवलम्बन लेना पड़ेगा। यदि अपौरुषेय वेद स्वतः ही अपने अर्थ का प्रस्तुतीकरण करता है तब तो वेद के अंगभूत आयुर्वेद आदि के ज्ञान के लिए मनुष्यों का पठन-पाठनरूप प्रयत्न भी व्यर्थ हो जायेगा। इत्यादि प्रकार से न्यायविनिश्चय के तीसरे प्रस्ताव में वेदों के अपौरुषेयत्व का निराकरण किया गया है। तथाहि-".
वेदस्यापौरुषेयस्य स्वतस्तत्त्वं विवृण्वतः। आयुर्वेदादियद्यंग यत्नस्तत्र निरर्थकः ।।