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जैन-न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान
के लिए असाधनांगवचन और प्रतिवादी के लिए अदोषोभावन ये दो ही निग्रह-स्थान माने हैं। उन्होंने कहा है
असाधनांगवचनमदोषोद्भावनं द्वयोः ।
निग्रहस्थानमन्यत्तु न युसक्तमिति नेष्यते ।। असाधनांगवचन का अर्थ है- जो साधन का अंग है उसे नहीं बोलना अथवा जो साधन की अंग नहीं है उसे बोलना। ऐसा करने से वादी की पराजय होती है। अदोषोद्भावन का अर्थ है- जो दोष नहीं हैं उनको बतलाना अथवा जो दोष हैं, उनको नहीं बतलाना। ऐसा करने से प्रतिवादी की पराजय होती है। अतः वादी का कर्तव्य है कि वह पूर्ण और निर्दोष साधन बोले और प्रतिवादी का कर्तव्य है कि वह वादी के कथन में यथार्थ दोषों का उद्भावन करे। बौद्धों के अनुसार जय-पराजय की व्यवस्था उक्त प्रकार से होती है।
अकलंकदेव ने न्यायदर्शन और बौद्धदर्शन की जय-पराजय व्यवस्था का. खण्डन करते हुए नैतिकता की दृष्टि से शास्त्रार्थ में छल, जाति और निग्रह-स्थान के प्रयोग को सर्वथा अन्याय माना है। वे असाधनांगवचन और अदोषोद्भावन के चक्कर में भी नहीं पड़े। उन्होंने तो स्पष्टरूप से इतना ही कहा कि वादी को अविनाभावी साधन से स्वपक्ष की सिद्धि और परपक्ष का निराकरण करना चाहिए। इसी प्रकार प्रतिवादी को वादी के पक्ष में यथार्थ दूषण बतलाकर अपने पक्ष की सिद्धि करनी चाहिए। इससे अधिक और किसी बात की आवश्यकता नहीं है। इसीलिए उन्होंने अष्टशती में कहा है
स्वपक्षसिद्धिरेकस्य निग्रहोऽन्यस्य वादिनः।
ना साधनांगवचनं ना दोषोद्भावनं द्वयोः।। अर्थात् एक की स्वपक्ष सिद्धि होने से ही अन्य वादी का निग्रह हो जाता है। इसलिए असाधनांगवचन और अदोषोद्भावन बतलाने की कोई आवश्यकता नहीं है।
धर्मकीर्ति द्वारा वादन्याय में प्रतिपादित निग्रह-स्थान के उत्तर में अकलंक ने न्याय विनिश्चय में कहा है
असाधनांगवचनमदोषोद्भावनं द्वयोः।
न युक्तं निग्रहस्थानमर्थापरिसमाप्तितः।। इसके अतिरिक्त सिद्धिविनिश्चय के जल्पसिद्धि प्रकरण में उक्त बातों पर अच्छी तरह से विचार किया गया है। इस प्रकार अकलंकदेव ने जय-पराजय व्यवस्था के लिए निर्दोष प्रणाली का प्रतिपादन किया है।