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अकलंकदेव का दर्शनान्तरीय अध्ययन
करते हैं। यदि अदृश्यानुपब्धि संशय हेतु मानी जाय तो मृत शरीर में चैतन्य की निवृत्ति का सन्देह सदा बना रहेगा और ऐसी स्थिति में मृत शरीर का दाह संस्कार करना कठिन हो जायेगा तथा दाह करने वालों को पातकी बनना पड़ेगा।
यहाँ एक बात यह भी द्रष्टव्य है कि अकलंक ने हेतु का एक ही रूप (अन्यथानुपत्ति) माना है तो उसके अभाव में हेत्वाभास भी एक ही होता है। उस हेत्वाभास का नाम है- अकिञ्चित्कर। और असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक आदि भेद अकिञ्चित्कर के ही हैं। इस विषय में न्यायविनिश्चय में लिखा है
अन्यथानुपपन्नत्वरहिताः ये विलक्षणा। . अकिञ्चित्कारकान् सर्वांस्तान् वयं संगिरामहे ।। जय-पराजय व्यवस्था :
जब दो पक्षों में शास्त्रार्थ होता है तो उनमें से एक पक्ष वादी कहलाता है और दूसरा पक्ष प्रतिवादी होता है। जैसे आत्मा है या नहीं? यहाँ एक पक्ष कहता है कि आत्मा है और दूसरा पक्ष कहता है कि आत्मा नहीं है। यहाँ प्रथम पक्ष वादी है और दूसरा पक्ष प्रतिवादी है। न्यायदर्शन ने वाद, जल्प और वितण्डा के भेद से शास्त्रार्थ के तीन प्रकार माने हैं। प्रमाण और तर्क से जहाँ साधन और दूषण को बतलाया गया है ऐसे पक्ष और प्रतिपक्ष का स्वीकार करना वाद है। जल्प और वितण्डा में छल, जाति
और निग्रह-स्थानों के द्वारा भी पक्ष की सिद्धि की जाती है और प्रतिपक्ष में दूषण किया जाता है। इतना विशेष है कि वितण्डा में प्रतिपक्ष नहीं होता है, केवल पक्ष ही होता है। शास्त्रार्थ में एक पक्ष की जय होती है और दूसरे पक्ष की पराजय होती है। यहाँ इस बात पर विचार करना है कि वास्तविक जय और पराजय की व्यवस्था कैसे होती है। न्यायदर्शन में जल्प और वितण्डा में छल, जाति और निग्रह-स्थान जैसे असत् उपायों का अवलम्बन लेना भी न्यारय माना गया है क्योंकि जल्प और वितण्डा का उद्देश्य तत्त्व संरक्षण करना है और तत्त्व संरक्षण किसी भी उपाय से करने में उन्होंने कोई दोष नहीं माना है। अर्थ में विकल्प करके वक्ता के वचनों का व्याघात करना छल है। छल तीन प्रकार का है- वाक् छल, सामान्य छल और उपचार छल। असत् या मिथ्या उत्तर को जाति कहते हैं। जाति के साधर्म्यसमा, वैधर्म्यसमा आदि २४ भेद हैं। पराजय प्राप्ति का नाम निग्रह-स्थान है। इसके प्रतिज्ञाहानि, प्रतिज्ञासंन्यास आदि २२ भेद हैं। यह सब व्यवस्था न्यायदर्शन के अनुसार बतलाई गई हैं।
धर्मकीर्ति ने वादन्याय नामक प्रकरण ग्रन्थ में छल, जाति और निग्रह-स्थान के आधार से होने वाली न्यायदर्शन की जय-पराजय व्यवस्था का खण्डन करते हुए वादी