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जैन- न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान
मानते हैं। पूर्व के तीन रूपों में अबाधितविषयत्व और असत्प्रतिपक्षत्व ये दो रूप और मिलाने पर पाँच रूप हो जाते हैं। इन पाँच रूपों के अभाव में हेत्वाभास भी पांच हैं- असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक, बाधितविषय और सत्प्रतिपक्ष ।
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अकलंकदेव ने त्रैरूप्य और पाञ्चरूप्य का खण्डन करते हुए कहा है कि हेतु का एक ही रूप या लक्षण है - अन्यथानुपपत्ति अर्थात् साध्य के अभाव में हेतु का नहीं होना । जैसे, धूम अग्नि के अभाव में कभी नहीं होता है । इतने मात्र से धूम हेतु बन जाता है। जहाँ अन्यथानुत्पन्नत्व है वहाँ तीन रूपों के न होने पर भी साध्य की सिद्धि हो जाती है और जहाँ अन्यथानुपान्नत्व नहीं हैं वहाँ तीन रूपों के होने पर भी साध्य की सिद्धि नहीं होती है। इस विषय में अकलंक ने न्यायविनिश्चय के त्रिलक्षण - खण्डन प्रकरण में लिखा है
अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ।
नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ।।
ऐसा कहा जाता है कि अकलंक के पूर्वज पात्रकेसरी ने ‘त्रिलक्षण कदर्थन' नामक ग्रन्थ लिखा था और उक्त श्लोक को पात्रकेसरी के उक्त ग्रन्थ से ही अकलंक ने लिया है। किन्तु पात्रकेसरी का त्रिलक्षण कदर्थन आज तक उपलब्ध नहीं हुआ है, इसलिए वर्तमान में उक्त श्लोक अकलंक रचित ही माना जाता है। इस प्रकार अकलंक ने बौद्धों के त्रैरूप्य का खण्डन किया है और त्रैरूप्य के खण्डन से नैयायिकों के पाञ्चरूप्य का भी खण्डन हो जाता है। कहा भी है
अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र किं पञ्चभिः ।
नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र किं पञ्चभिः ।।
यहाँ एक बात स्मरणीय है कि बौद्धों ने हेतु तीन भेद माने हैं और दृश्यानुपलब्धि को ही अभाव साधक माना है, अदृश्यानुपलब्धि को नहीं । किन्तु अकलंक ने कार्य, स्वभाव और अनुपब्धि के अतिरिक्त कारण, पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर - इन चार को भी हेतु माना है तथा यह भी बतलाया है कि दृश्यानुपलब्धि की तरह अदृश्यानुपलब्धि भी अभाव की साधक होती है। किसी स्थान विशेष में घट की अनुपलब्धि दृश्यानुपलब्धि है और पिशाच की अनुपलब्धि अदृश्यानुपलब्धि कही जाती है । बौद्धों ने दृश्यत्व का अर्थ केवल प्रत्यक्ष विषयत्व किया है। इस विषय में अकलंक ने कहा है कि दृश्यत्व का अर्थ केवल प्रत्यक्ष विषयत्व नहीं है, किन्तु उसका अर्थ प्रमाणविषयत्व है, हमारे शरीर में जो चैतन्य है वह प्रमाण का विषय होने से दृश्य है और इसीलिए हम लोग मृत शरीर में स्वभाव से अतीन्द्रिय चैतन्य का अभाव सिद्ध