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अकलंकदेव का दर्शनान्तरीय अध्ययन
कि स्वप्नप्रत्यय | नीलप्रत्यय और नीलपदार्थ में सहोपलम्भनियम होने से उन दोनों में • अभेद हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि घटादि पदार्थों की केवल प्रातिभासिकी सत्ता है, पारमार्थिकी नहीं ।
विज्ञानवादियों के इस मत का खण्डन करने के लिए अकलंकदेव न्यायविनिश्चय में कहते हैं
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विलुप्ताक्षा
यथाबुद्धिर्वितथप्रतिभासिनी ।
तथा सर्वत्र किन्नेति जड़ाः सम्प्रतिपेदिरे ।।
यदि तिमिर रोग वाले व्यक्ति को असत् केश, चन्द्र आदि का दर्शन होता है और बाह्य पदार्थों की वास्तविक सत्ता नहीं हैं तो जिन पुरुषों की आँख विकार रहित और निर्मल है, उनको सब पदार्थों में अवितथ प्रतिपत्ति क्यों होती है ? असत् केश, चन्द्रादि दर्शन और सत् घढादि बाह्य पदार्थों का दर्शन- इन दोनों में जो भेद हैं उसको बाल • गोपाल आदि सामान्य जन भी अच्छी तरह से समझते हैं । यदि स्वप्नप्रत्यय अनालम्बन है तो इसका मतलब यह नहीं है कि जाग्रत प्रत्यय भी अनालम्बन है । अतः बौद्धों के सहोपलम्भनियमांदभेदो नीलतद्धियों के उत्तर में अकलंक कहते हैं
सहोपलम्भनियमान्नाभेदो नीलतद्धियोः ।
जब नील अर्थ और नील ज्ञान में सहोपलम्भ नियम है तो इससे यही सिद्ध होता है कि उन दोनों में अभेद नहीं है, किन्तु साहचर्यमात्र है। सहोपलम्भ होने से अभेद नहीं, किन्तु भेद ही सिद्ध होता है। पिता और पुत्र साथ-साथ रहते हैं तो इससे उनमें अभेद सिद्ध नहीं हो जाता है । केवल साहचर्य सिद्ध होता है। नील ज्ञान और नील अर्थ में सहोपलम्भ भी नहीं है क्योंकि नील ज्ञान के बिना भी नील अर्थ की सत्ता रहती ही है। इस प्रकार बौद्धों का विज्ञानवाद असंगत है ।
• हेतुलक्षण त्रैरूप्य और पाञ्चरूप्य :
धर्मकीर्ति ने हेतुबिन्दु में हेतु का लक्षण इस प्रकार किया हैपक्षधर्मस्तदंशेन व्याप्तो हेतुस्त्रिधैव सः । अविनाभावनियमात् हेत्वाभासास्ततो ऽपरे ।।
अर्थात् जिसमें पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व और विपक्षासत्त्व- ये तीन बातें पायी जावें वह हेतु कहलाता है। जैसे पर्वत में अग्नि को सिद्ध करने में धूम हेतु होता है। हेतु के तीन प्रकार हैं- कार्य हेतु,स्वभाव हेतु, और अनुपलब्धि हेतु । इस प्रकार बौद्ध हेतु के पक्षधर्मत्व आदि तीन रूप मानते हैं और इन तीन रूपों के अभाव में असिद्ध, विरुद्ध और अनैकान्तिक-ये तीन हेत्वाभास मानते हैं । नैयायिक हेतु के पाँच रूप