________________
जैन - न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान
कि जब आप आत्मा को ही नहीं मानते हैं तब किस पर करुणा की जायेगी तथा कौन करुणा करेगा ?
तदुत्पत्ति और तदाकारता :
बौद्ध मानते हैं कि ज्ञान अर्थ से उत्पन्न होता है और अर्थ के आकार होता है। बौद्धों के इस मत का अकलंक ने युक्तिपूर्वक खण्डन किया है। उन्होंने बतलाया है कि जिन दो पदार्थों में तदुत्पत्ति सम्बन्ध होता है उनमें अन्वय-व्यतिरेक अवश्य पाया जाता है। जैसे धूम और हृति में तदुत्पत्तिसम्बन्ध है तो उनमें अन्वय-व्यतिरेक' भी अवश्य है किन्तु इस प्रकार का अन्वयव्यतिरेक अर्थ और ज्ञान में नहीं पाया जाता है। हम देखते हैं कि अर्थ के अभाव में भी ज्ञान उत्पन्न हो जाता है, जैसे केशोण्डुक
ज्ञान ।
48
बौद्ध कहते हैं कि ज्ञान अर्थाकार होता है । यदि ज्ञान अर्थाकार न हो तो घट ज्ञान का विषय घट ही है, पुस्तक नहीं, ऐसा नियम नहीं बन सकता है। इस विषय में धर्मकीर्ति ने प्रमाणवार्तिक में लिखा है
अर्थेन घटयत्येनां नहिं मुक्त्वार्थरूपताम् ।
तस्मात् प्रमेयाधिगतेः प्रमाणं मेयरूपता ।।
इस अर्थाकारता के निराकरण में अकलंक ने कहा है कि स्वावरणक्षयोपशमरूप योग्यता के द्वारा ही विषय का प्रतिनियम बन जाता है। इसके लिए ज्ञान को अर्थाकार मानने की आवश्यकता नहीं है । हमारा ज्ञान घट को इसलिए जानता है, क्योंकि उसमें घटज्ञानावरणक्षयोपशमरूप योग्यता है ।
विज्ञानवाद :
·
बौद्धदर्शनिकों में एक मत विज्ञानवादियों का है । वे कहते हैंविज्ञप्तिमात्रमेवेदमसदर्थावभासनात् ।
यथा तैमिरिकस्यासत्केशचन्द्रादिदर्शनम् ।।
इस विश्व में केवल विज्ञप्तिमात्र (विज्ञान मात्र ) ही तत्त्व है। हमें जो अर्थ की प्रतीति होती है वह असत् अर्थ की प्रतीति है । जैसे तैमिरिक (तिमिर रोग वाले) पुरुष को असत् केश चन्द्र आदि का दर्शन हो जाता है, उसी प्रकार सर्वत्र असत् अर्थ की ही प्रीति होती है। उन्होंने और भी कहा है
सर्वे प्रत्ययाः अनालम्बनाः प्रत्ययत्वात्, स्वप्नप्रत्ययवृत् । सहोपलम्भनियमादभेदो नीलतद्धियोः ।।
जितने प्रत्यय (ज्ञान) होते हैं वे सब अनालम्बन ( विषय रहित ) होते हैं, जैसे