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जैन-न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान
इससे ज्ञात होता है कि धर्मकीर्ति और अकलंक के प्रमाण लक्षण में समानता है। बौद्धों द्वारा अभिमत प्रत्यक्षलक्षणः
बौद्ध नैयायिक दिङ्नाग ने प्रमाणसमुच्चय में प्रत्यक्ष का लक्षण इस प्रकार बतलाया है
प्रत्यक्षं कल्पनापोढं नामजात्याद्यसंयुक्तम्। .. अर्थात् नाम, जाति आदि की कल्पना से रहित ज्ञान प्रत्यक्ष कहलाता है। धर्मकीर्ति ने इसमें अभ्रान्तपद और जोड़कर न्यायबिन्दु में लिखा है
कल्पनापोढ़मभ्रान्तं ज्ञानं प्रत्यक्षम्। .. ___ कल्पना कई प्रकार की होती है- नामयोजना- जैसे राम, मोहन, आदि। जाति-योजना- जैसे मुनष्य, गौ आदि। गुणयोजना- जैसे शुक्ल, कृष्ण आदि। क्रियायोजनाजैसे पाचक, पाठक आदि। द्रव्ययोजना- जैसे दण्डी, विषाणी आदि। ये सब कल्पनायें. हैं। बौद्धों के अनुसार प्रत्यक्ष ज्ञान में उक्त प्रकार की नाम, जाति, आदि की योजनारूप कल्पना नहीं होती है। प्रत्यक्ष तो सब प्रकार के विकल्पों से रहित होने के कारण निर्विकल्पक ज्ञान के रूप में माना गया है। जिस ज्ञान में कल्पना या विकल्प होता है वह सविकल्पक प्रत्यक्ष कहलाता है। यथार्थ में बौद्धों के अनुसार सविकल्पक ज्ञान प्रत्यक्ष न होकर प्रत्यक्षाभास है। प्रमाणवार्तिक में प्रत्यक्ष का लक्षण इस प्रकार बतलाया गया है
प्रत्यक्ष कल्पनापोडं प्रत्यक्षेणैव सिद्धयति।
प्रत्यात्मवेद्यः सर्वेषां विकल्पो नामसंश्रयः ।। अर्थात् प्रत्यक्ष रूप ज्ञान कल्पना रहित होता है और यह बात प्रत्यक्ष से ही सिद्ध है और नाम आदि के आश्रय से होने वाला विकल्प भी सब के अनुभव में आता है। इस प्रकार बौद्धों के अनुसार कल्पना रहित ज्ञान प्रत्यक्ष है और कल्पना सहित ज्ञान प्रत्यक्षाभास है।
अकलंकदेव ने अपने ग्रन्थों में बौद्धों के द्वारा अभिमत उक्त प्रकार के निर्विकल्पक प्रत्यक्ष का खण्डन करके प्रत्यक्ष ज्ञान को सविकल्पक सिद्ध किया है। न्यायविनिश्चय में लिखा है
प्रत्यक्षं कल्पनापोढं प्रत्यक्षादिनिराकृतम्। .. अर्थात् प्रत्यक्ष को कल्पनापोढ़ मानना प्रत्यक्षादि प्रमाणों से निराकृत हो जाता है। न्यायविनिश्चय में और भी लिखा है