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________________ अकलंक़देव का दर्शनान्तरीय अध्ययन 45 बतलाते हुए हनुमच्चरित में लिखा है अकलंकगुरु यादकलंकपदेश्वरः । बौद्धानां बुद्धिवैधव्यदीक्षा-गुरुरुदाहृतः ।। अर्थात् वे अकलंक जयवन्त हों जिनके द्वारा बौद्धों की बुद्धि विधवा हो गयी थी अथवा उनकी बुद्धि को वैधव्य की दीक्षा दी गयी थी। इसी प्रकार अकलंकदेव की प्रशंसा में एक शिलालेख में लिखा है : तस्याकलंकदेवस्य महिमा केन वर्ण्यते। यद्वाक्यखड्गघातेन हतो बुद्धो विबुद्धि सः।। - अर्थात् उस अकलंकदेव की महिला का वर्णन कौन कर सकता है, जिनके वचन रूपी खड्ग के प्रहार से आहत होकर बुद्ध बुद्धि रहित हो गया था। ___उक्त उल्लेखों से सिद्ध होता है कि अकलंक का बौद्धों के साथ अनेक स्थानों पर शास्त्रार्थ हुआ था और सर्वत्र ही बौद्धों को पराजित होना पड़ा था। इसी कारण अकलंक की प्रसिद्धि बौद्ध-विजेता के रूप में सर्वत्र व्याप्त हो गई थी। . . ___अब अकलंकदेव के दर्शनान्तरीय अध्ययन पर उनके द्वारा रचित ग्रन्थों के आधार से विचार किया जाता है। अकलंक के वाङ्मय का अधिकांश भाग बौद्धदर्शन के सिद्धान्तों के खण्डन से भरा हुआ है। अकलंक ने धर्मकीर्ति के प्रमाणवार्तिक, न्यायबिन्दु, हेतुबिन्दु, वादन्याय आदि ग्रन्थों का बहुत ही गहराई से अध्ययन किया था और इसका उनके ऊपर कई बातों में अच्छा प्रभाव भी पड़ा था। इस कारण धर्मकीर्ति और अकलंक का दृष्टिकोण कुछ बातों में समान पाया जाता है। जैसे मीमांसकों द्वारा अंभिमत वेदापौरुषेयत्व के निराकरण में, नैयायिक-वैशेषिकों के द्वारा अभिमत नित्य, एक और सर्वव्यापक सामान्य के खण्डन में तथा वादी-प्रतिवादी की जय-पराजय के निर्धारण के लिए नैयायिकाभिमत छल, जाति और निग्रहस्थान की आलोचना में धर्मकीर्ति और अकलंक का दृष्टिकोण प्रायः एक सा रहा है। इससे यह भी प्रतीत होता है कि धर्मकीर्ति ने अकलंक को सब से अधिक प्रभावित किया था। धर्मकीर्ति ने प्रमाणवार्तिक में प्रमाण का लक्षण इस प्रकार लिखा है प्रमाणमविसंवादिज्ञानमज्ञातार्थप्रकाशो वा। ___ अर्थात् वह ज्ञान प्रमाण है जो अविसंवादी और अज्ञात अर्थ को जानने वाला अकलंक ने भी अष्टशती में इसी प्रकार का प्रमाण का लक्षण लिखा है प्रमाणमविसंवादिज्ञानमनधिगतार्थाधिगमलक्षणत्वात् ।
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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