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जैन-न्याय को आचार्य अकलकदेव का अवदान
उन्होंने अपने समय में जैनधर्म-दर्शन की पताका सर्वत्र फहराई और एकान्तवादियों पर, विशेष रूप से बौद्धों पर विजय प्राप्त की। शास्त्रार्थी अकलंकः
अकलंक का युग विद्वत्समाज में शास्त्रार्थ करने का युग था। अतः उस समय शास्त्रार्थ धर्मप्रचार करने का प्रमुख साधन समझा जाता था। अकलंकदेव की प्रसिद्धि शास्त्रार्थी तथा बौद्धविजेता के रूप में रही है। उस समय के शास्त्रार्थ प्रायः राजसभाओं में हुआ करते थे और राजा तथा प्रजा दोनों उसमें समानरूप से सम्मिलित होकर उससे लाभ उठाते थे। अकलंक ने कई राजसभाओं में जाकर बौद्धों के साथ शास्त्रार्थ किया था। बौद्धधर्म में तारादेवी का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है और अकलंक की ताराविजेता के रूप में ख्याति रही हैं। बौद्धों की इष्टदेवी तारा परदे की ओट में घट के अन्दर बैठकर शास्त्रार्थ करती थी और उस तारादेवी को अकलंक ने शास्त्रार्थ में पराजित किया था। कलिंग देश के राजा हिमशीतल की सभा में अकलंक के शास्त्रार्थ
और तारादेवी की पराजय का उल्लेख श्रवण बेलगोल की मल्लिषेण प्रशस्ति में इस प्रकार किया गया है
तारा येन विनिर्जिता घटफुटी गूढावतारा समम्, बौद्धैर्या धृतपीठपीडितकुदृग्देवात्तसेवाञ्जलिः । प्रायश्चित्तमिवांघ्रिवारिजरजः स्नानं च यस्यचार
घोषाणां सुगतः स कस्य विषयो देवाकलंकः कृतिः।। पाण्डवपुराण में तारादेवी के घट को पैर से ठुकराने का उल्लेख इस प्रकार किया गया है
अकलंकोऽकलंकः स कलौ कलयतु श्रुतम्।
पादेन ताडिता येन मायादेवी घटस्थिता।। इसी प्रकार मान्यखेट के राजा साहसतुंग की राजसभा में भी अकलंक के जाने का उल्लेख मल्लिषेण-प्रशस्ति में है। महाकवि वादिराजसूरि ने पार्श्वनाथचरित में अकलंक को बौद्धविजेता बतलाते हुए लिखा है
तर्कभूवल्लभो देवः स जयत्यकलंकधीः।
जगद्रव्यमुषो येन दण्डिता शाक्यदस्यवः ।। अर्थात् वे तर्कभूवल्लभ अकलंकदेव जयवन्त हों, जिन्होंने जगत् की वस्तुओं के अपहार्ता शून्यवादी बौद्ध दस्युओं को दण्डित किया था।
इसी प्रकार ब्रह्मचारी अजित ने अकलंक को 'बौद्धबुद्धि-वैधव्यदीक्षा-गुरु'