________________
अकलंकदेव का दर्शनान्तरीय अध्ययन
की आप्तमीमांसा के ऊपर लिखा गया भाष्य है और तत्त्वार्थवार्तिक तत्त्वार्थसूत्र पर -लिखा गया है। इन दोनों ग्रन्थों में जैनन्याय की चर्चा अल्प ही है किन्तु इनमें जैन दर्शन की विशदचर्चा की गयी है। अकलंकदेव की चार रचनायें स्वतंत्र ग्रन्थ के रूप में हैं और इनमें जैनन्याय की व्यापक चर्चा की गई है तथा अन्य दर्शनों के सिद्धान्तों का सप्रमाण निराकरण किया गया है। ये चार ग्रन्थ हैं - लघीयस्त्रय, न्यायविनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय और प्रमाणसंग्रह ।
43
अकलंकदेव के दर्शनान्तरीय अध्ययन को जानने के पहले इसकी पृष्ठभूमि को जान लेना आवश्यक है। जब सातवीं या आठवीं शताब्दी में इस पवित्र भारतभूमि पर जैनन्याय के प्रतिष्ठापक अकलंकदेव अवतीर्ण हुए थे, तब बौद्ध-धर्म-दर्शन का मध्याह्नकाल था। उस समय बौद्धदर्शन के प्रमुख आचार्यों - दिङ्नाग, वसुबन्धु, धर्मकीर्ति, धर्मोत्तर, ‘प्रज्ञाक़रगुप्त, कर्णकगोमि और शान्तरक्षित आदि का प्रभाव चतुर्दिक् फैला हुआ था। बौद्धदर्शन के अध्ययन-अध्यापन के लिए बौद्धमठ और विद्यालय भी पर्याप्त मात्रा में सर्वत्र विद्यमान थे, जिनमें उच्चकोटि के आचार्यों द्वारा बौद्धधर्म-दर्शन के सिद्धान्तों का भलीभाँति अध्ययन कराया जाता था । उस समय नालन्दा और तक्षशिला जैसे विश्वविख्यात विश्वविद्यालय भी थे। यह सब देखकर नवयुवक अकलंक को गुरुमुख से बौद्धदर्शन के अध्ययन करने की इच्छा हुई क्योंकि जैसा ज्ञान गुरु के मुख से श्रवण कर प्राप्त किया जा सकता है वैसा स्वतः अध्ययन से प्राप्त नहीं होता है। संभवतः उस समय एक जैन के रूप में बौद्ध विद्यालय में प्रवेश सम्भव नहीं था । इसी कारण अकलंक ने प्रच्छन्नरूप में काञ्ची में या उसके आस-पास किसी बौद्ध विद्यालय में प्रवेश लिया। वे जन्मजात प्रतिभा सम्पन्न तो थे ही, इसलिए थोड़े ही समय में बौद्धदर्शन के निष्णात विद्वान् बन गये । उनकी कुछ बातों को देखकर उनके गुरु . को यह सन्देह हो गया कि यह बालक तो जैन मालूम पड़ता है। जाँच के फलस्वरूप वे पकड़ लिए गये और उनको वहाँ से अपनी जान बचाकर भागना पड़ा किन्तु अपने लक्ष्य को तो उन्होंने प्राप्त कर ही लिया था । बौद्ध विद्यालय में अध्ययन समाप्ति के बाद अकलंक को अपने जीवन में जो सफलता मिली उसका कारण बौद्धधर्म-दर्शन का सर्वांगीण अध्ययन था। इसका मतलब यह नहीं है कि उन्होंने जैनदर्शन का अध्ययन नहीं किया था। वे बाल्यावस्था में ही ब्रह्मचर्य व्रत धारण करके गृहस्थ जीवन से विरक्त हो गये थे और उन्होंने वीतरागी साधुओं के पास रहकर जैनधर्म-दर्शन का अध्ययन भी अवश्य किया होगा, तभी तो वे जैनदर्शन के भी अतिविशिष्ट विद्वान् हुए। जैनदर्शन, बौद्धदर्शन आदि समस्त भारतीय दर्शनों के निष्णात विद्वान् होकर ही