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________________ जैन-न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान अकलंकदेव के समय में भारतीय न्यायशास्त्र में बहुत उन्नति हो चुकी थी किन्तु एकान्तवादियों ने न्याय के स्वरूप को अपने दूषित विचारों द्वारा मलिन कर दिया था। . इस बात से दुःखित होकर अकलंकदेव ने न्यायविनिश्चय के प्रारंभ में लिखा है ................. कलिबलात् प्रायो गुणद्वेषिभिः । न्यायोऽयं मलिनीकृतः कथमपि प्रक्षाल्य नेनीयते। सम्यग्ज्ञानजलैर्वचोभिरमलं तत्रानुकम्पापरैः ।। . अर्थात् कलिकाल के बल से गुणद्वेषी एकान्तवादियों ने इस न्याय को मलिन कर दिया है। अतः जिसमें सम्यग्ज्ञान रूप जल भरा हुआ है ऐसे वचनों द्वारा उस मलिन न्याय को धोकर निर्मल करते हैं। अतः अकलंकदेव ने मलिन न्याय को निर्मल किया था, अतः जैनन्याय को अकलंक-न्याय भी कहा जाता है। यहाँ अकलंक शब्द . में श्लेष है। इसके दो अर्थ होते हैं- (१) अकलंक द्वारा प्रतिष्ठित न्याय और (२) निष्कलंक न्याय। इतना सब होने पर भी न्यायशास्त्र सर्वसाधारण के लिए एक कठिन , विषय के रूप में ही माना जाता है। यही कारण है कि कुछ लोग परिहास में इसकी आधुनिक परिभाषा इस प्रकार करते हैं- न आय इति न्याय अर्थात् जो समझ में नहीं आता है, वह न्याय है। जैनन्याय के विषय में संक्षिप्त प्रकाश डालने के बाद अब अकलंकदेव के 'दर्शनान्तरीय अध्ययन' पर विचार करना आवश्यक है और इसके लिए यह जानना भी आवश्यक है कि भारतीय दर्शन कितने हैं। मुख्य रूप से भारतीय दर्शन के दो भेद हैं वैदिक-दर्शन और अवैदिक-दर्शन। जो वेद को प्रमाण मानते हैं वे वैदिक-दर्शन छह हैं- न्याय, वैशेषिक, साँख्य, योग, मीमांसा और वेदान्त । जो वेद को प्रमाण नहीं मानते हैं वे अवैदिक-दर्शन तीन हैं- जैन, बौद्ध और चार्वाक। एक दूसरे प्रकार से भी भारतीय दर्शनों का विभाग किया जा सकता है- अनेकान्तवादी दर्शन और एकान्तवादी दर्शन। इनमें जैनदर्शन अनेकान्तवादी दर्शन है और शेष दर्शन एकान्तवादी दर्शन हैं। ___ अकलंकदेव ने इन समस्त दर्शनों का तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त किया था और उनके मन्तव्यों को अच्छी तरह से समझा था। इसके बाद ही उन्होंने उनके सिद्धान्तों के निराकरण के लिए अपनी लेखनी चलाई थी। अतः अकलंकदेव ने अपने ग्रंथों में अन्य दर्शनों के सिद्धान्तों का जो निराकरण किया है उसी के आधार पर हम अकलंक का दर्शनान्तरीय अध्ययन सिद्ध करेंगे। अकलंक के ग्रन्थ दो प्रकार के हैं- टीका या भाष्यरूप ग्रन्थ और स्वतंत्र रचनायें। इनमें अष्टशती और तत्त्वार्थवार्तिक भाष्यरूप ग्रन्थ हैं। अष्टशती समन्तभद्र
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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