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________________ अकलंकदेव का दर्शनान्तरीय अध्ययन प्रो० उदयचन्द्र जैन सर्वदर्शनाचार्य आज की संगोष्ठी का मुख्य विषय है 'जैनन्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान' और इसके अन्तर्गत मेरा विषय है- 'अकलंददेव का दर्शनान्तरीय अध्ययन।' न्याय क्या है? महर्षि गौतम ने न्याय सूत्र में कहा है 'प्रमाणैरर्थपरीक्षणं न्यायः' अर्थात् प्रमाणों के द्वारा अर्थ की परीक्षा करना न्याय कहलाता हैं। जैनदर्शन की दृष्टि से हम कह सकते हैं- प्रमाणैः नयैश्च अर्थपरीक्षणम् अर्थाधिगमनम् वा न्यायः । तत्त्वार्थसूत्र के 'प्रमाणनयैरधिगमः' इस सूत्र में जैनन्याय के बीज उपलब्ध होते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि जैनन्याय प्रमाण और नय रूप है। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि जैनदर्शन ने ही नय को माना है, अन्य किसी दर्शन ने नहीं। अतः नय जैनदर्शन की -अपनी देन है। - तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वामी के बाद जैनपरम्परा में ऐसे दो आचार्य हुए हैं, जिन्होंने जैनन्याय की आधारशिला रखी है। इनमें एक हैं स्वामी समन्तभद्र और दूसरे : हैं आचार्य सिद्धसेन दिवाकर। समन्तभद्र ने आप्तमीमांसा में न्याय की चर्चा बहुत कम की है क्योंकि उनका मुख्य उद्देश्य तो आप्तमीमांसा में आप्त की मीमांसा के बहाने . सदेकान्त, सदेकान्त, नित्यैकान्त, अनित्यैकान्त आदि विभिन्न एकान्तवादियों के दृष्टिकोणों का स्याद्वादन्याय के द्वारा समन्वय करके अनेकान्त और स्याद्वाद की स्थापना करना · था। अतः समन्तभद्र ने आप्तमीमांसा में प्रमाण और नय का लक्षण, प्रमाण के भेद और प्रमाण का फल बतलाकर जैनन्याय की चर्चा का श्रीगणेश किया है। यहाँ यह उल्लेखनीय है.कि जैन वाङ्मय में सबसे पहले समन्तभद्र ने ही न्याय शब्द का प्रयोग किया है और न्याय को स्याद्वादरूप बतलाया है। इसके बाद सिद्धसेन दिवाकर ने न्यायावतार नामक ग्रन्थ की रचना करके जैन वाङ्मय में सर्वप्रथम न्याय के अवतार करने का श्रेय प्राप्त किया है। यहाँ संक्षेप में इतना ही कहा जा सकता है कि पूर्वोक्त दोनों आचार्यों ने जैनन्याय के क्षेत्र में भव्य भवन के निर्माण के लिए शिलान्यास कर दिया था और इसी शिलान्यास के आधार पर अकलंकदेव ने अपने प्रकाण्ड वैदुष्य के द्वारा जैनन्याय के भव्य प्रासाद का निर्माण किया है। * १२२ बी, रवीन्द्रपुरी, वाराणसी-२२१००५
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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