________________
जैन-न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान
घटश्चाऽघटश्चावक्तव्यश्चेति अर्पितानर्पितसिद्धेर्निरूपयितव्या।"
प्रमाणनयार्पणाभेदात्
भाष्य- एकान्तो द्विविधः- सम्यगेकान्तो मिथ्र्यकान्त इति। अनेकान्तोऽपि द्विविधः सम्यगनेकान्तो मिथ्यानेकान्त इति। ...तत्र सम्यगेकान्तो नय इत्युच्यते। सम्यगनेकान्तः प्रमाणम्। नयार्पणादेकान्तो भवति एकनिश्चयप्रवणत्वात् प्रमाणार्पणादनेकान्तो भवति अनेकनिश्चयाधिकरणत्वात्।२ .
आ० अकलंकदेव ने प्रायः अनेकान्त शैली का प्रयोग करते हुए विवादों के निराकरणार्थ विशद व्याख्या की है। उनके सभी ग्रन्थों में यह बात दृष्टिगोचर होती है। तत्त्वार्थवार्तिक में भी चतुर्थ व पंचम अध्याय में विस्तृत रूप से अनेकान्त का वर्णन किया है। वे अनेकान्त के महापण्डित थे। उनका चिन्तन मौलिक एवं तलस्पर्शी है।.
दृष्टान्तपूर्वक रुचिकर व्याख्या - न्याय जैसे सूक्ष्म विषयों एवं सिद्धान्त के विवेचनों में वे दृष्टान्तों का सर्वत्र प्रयोग करते हुए दृष्टिगत होते हैं। विषय को संरल बनाने हेतु उनका प्रयास सतत् रूप से विद्यमान है। तत्त्वार्थवार्तिक का निम्न उदाहरण समाधान के रूप में प्रस्तुत है
'परिणामकशक्तिविशेषात्। परिणामकस्य हि वस्तुनः शक्तिविशेषादन्यथाभावो भवति। यथा अलाबूद्रव्यं दुग्धं विपरिणामयितुं शक्नोति तथा मिथ्यादर्शनमपि मत्यादीनामन्यथात्वम् कर्तुमलं तदुदये अन्यथानिरूपणदर्शनात्। व!गृहं तु मण्यादीनां विकारं नोत्पादयितुमलं, विपरिणामक-द्रव्य-सन्निधाने तेषामपि भवत्येवान्यथात्वं, यदा तु सम्यग्दर्शनं प्रादुर्भूतं तदा मिथ्यापरिणामदर्शनाभावात्। तेषां मत्यादीनां सम्यक्त्वम्, अतः सम्यग्दर्शन- मिथ्यादर्शनोदयविशेषात्तेषाम् त्रयाणां द्विधा क्लृप्तिर्भवति मतिज्ञानं मत्यज्ञानं श्रुतज्ञानं श्रुताज्ञानं अवधिज्ञानं विभंगज्ञानमिति। ____ संक्षेप में यह कहना पर्याप्त होगा कि आचार्य अकलंकदेव ने अपनी टीकाओं के द्वारा दर्शन एवं सिद्धान्त के क्षेत्र को पर्याप्त पल्लवित किया है। यदि उनका साहित्य उपलब्ध न होता तो हम जैनधर्म की प्रभावना में अक्षम ही रहते। अकलंकदेव को सच्चे अर्थ में स्मरण करने का अर्थ होगा उनके साहित्य का सम्यक् प्रचार। प०पू० उपाध्याय ज्ञानसागर जी महाराज की प्रेरणा और आशीर्वाद वस्तुतः इस हेतु सम्बल का काम करेगा।
१. तत्त्वार्थवार्तिक, १/३१/३ २. तत्त्वार्थवार्तिक १/६/५ ३. तत्त्वार्थवार्तिक १/६/७