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जैन - न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान
स्पष्टीकरण- अकलंकदेव अपनी टीकाओं में विषय स्पष्टीकरण के प्रति पग-पग पर उत्सुक दृष्टिगत होते हैं। उनकी टीकायें गुलाब के पुष्प के समान हैं जिसमें से अधिसंख्य अर्थरूप पांखुड़ियाँ ही पांखुड़ियाँ निकलती जाती हैं। कहीं-कहीं पर टीका के दर्शन विस्तृत स्पष्टीकरण के कारण होते हैं । स्वयं उनका ही वार्त्तिक और स्पष्टीकरण हेतु उस पर लिखा गया भाष्य उनकी टीका की विशेषता है । तत्त्वार्थवार्तिक में सम्यग्ज्ञान का स्वरूप सर्वार्थसिद्धि के लाक्षणिक वाक्य को यथावत् समाविष्ट करते हुए वे लिखते हैं
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“नयप्रमाणविकल्पपूर्वकौ जीवाद्यर्थयाथात्म्यावगमः सम्यग्ज्ञानम् । नयौ च प्रमाणे च नयप्रमाणानि, तेषां विकल्पाः नयप्रमाणविकल्पाः । द्वौ नयौ द्रव्यार्थिकश्च पर्यायार्थिकश्च द्वे प्रमाणे प्रत्यक्षं परोक्षं च तेषां विकल्पा नैगमादयो मत्यादयश्च वक्ष्यन्ते । पूर्वशब्दस्तत्कारणवाची। नयप्रमाणविकल्पपूर्वकौ नयप्रमाणविकल्पहेतुक इत्यर्थः । येन येन प्रकारेण जीवादयः पदार्थाः अवस्थिताः तेन तेनावगमः जीवाद्यर्थयाथात्म्यावगमः सम्यग्ज्ञानम् । मोह-संशय-विपर्यय-निवृत्यर्थं सम्यग्विशेषणम्.।””
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यहाँ पर आ० पूज्यपाद के सम्यग्ज्ञान के लक्षण को और अधिक स्पष्ट करते हुए नय और प्रमाण के भेदों द्वारा जीवादि पदार्थों को यथावस्थित रुप में जानना सम्यग्ज्ञान निरूपित किया गया है। नयों के भेद द्रव्यार्थिक- पर्यायार्थिक तथा प्रमाण के भेद प्रत्यक्ष - परोक्ष तथा प्रभेदों का भी उन्होंने उल्लेख किया है। इससे एक ही स्थल पर रेखांकित सर्वार्थसिद्धि अंश का भाव बड़े कौशल से हृदयंगत कराया है।
न्याय और दार्शनिक विषयों का समावेश- आ० अकलंकदेव मौलिक रूप से दार्शनिक भाष्यकार के रूप में अवतरित हुए हैं। उन्होंनें सांख्य, वैशेषिक, नैयायिक और बौद्धदर्शन की मान्यताओं का निरसन कर जैनदर्शन की स्थापना की है। यह उनके स्वभाव के अनुरूप ही है। उनकी टीकायें दर्शन - समीक्षा के परिवेश में ऐकान्तिक मान्यताओं का निरसन कर सापेक्ष वस्तु तत्त्व का दर्पणवत् दर्शन कराती हैं। वे न्याय के महापण्डित एवं भुक्तभोगी थे । अतः दार्शनिक पाण्डित्य की झलक तो सहज रूप से उनकी टीकाओं में अवश्यम्भावी है । पुनश्च उनका अभीष्ट प० पू० आ० समन्तभद्र स्वामी के न्याय का पल्लवन तथा परवादियों पर विजय प्राप्त कर जैनदर्शन की ध्वजा फहराना ही था। अष्टशती टीका तो सम्पूर्ण रूप से दार्शनिकता से ओत-प्रोत है ही, तत्त्वार्थवार्तिक में भी प्रथम व पञ्चम अध्याय के अन्तर्गत दार्शनिक विवरण, समीक्षा एवं मंतव्यों को सम्यक् रूपेण प्रकट किया है। उनकी टीकायें जैनदर्शन की संस्थापित १. तत्त्वार्थ वार्तिक, प्रथम अध्याय, सूत्र १