SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कुशल टीकाकार आचार्य अकलंकदेव उसी प्रकार आत्मा से कर्मों की विकलता ही उसकी कैवल्यस्वरूप की प्राप्ति है, इसलिए अतिप्रसंग का दोष नहीं आता है। आ० अकलंकदेव कुशल टीकाकारों की अग्रिम पंक्ति में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। टीका के विभिन्न रूप - भाष्य, व्याख्यान, वार्त्तिक आदि प्रायः सभी विधाओं में भट्टाकलंकदेव ने अपनी कुशल टीका - लेखन - प्रतिभा का परिचय दिया है। अपने स्वतन्त्र ग्रन्थों पर भी वृत्ति एवं भाष्य लेखन की उनकी शैली से विदित होता है कि उनकी अभिरुचि विशेष रूप से टीका - लेखन कार्य में थी । वे प्रत्येक विषय को आगम, अध्यात्म, न्याय और दर्शन के परिप्रेक्ष्य में विशेषतया स्पष्ट करते हुए एवं पाठकों को उसका अन्तस्तत्त्व हृदयंगम कराते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। उनके टीका-कौशल को कतिपय निम्न बिन्दुओं द्वारा समझा जा सकता हैअर्थ गाम्भीर्य- अकलंक शब्दशास्त्र के समुद्र ही थे । अल्पतम शब्दों में बृहत्तम अर्थ को समायोजित करने में वे निपुण थे। उनके टीकाग्रन्थ भी वस्तुतः मूलग्रन्थ सरीखे जान पड़ते हैं। सामान्य पाठक उनकी जटिल, दुरूह शैली का हार्द समझने में अवश्य ही कठिनाई का अनुभव करता है परन्तु यदि उनकी टीकाओं का अध्ययन करने से पूर्व तत्-तद् विषयों का सामान्य ज्ञान पाठक को होता है तो वह सफल हो जाता है। विषय प्रतिपादन हेतु · अकलंकदेव ने सरल या क्लिष्ट जैसी शब्दावली अपेक्षित हो उसका प्रयोग मुक्त लेखनी से किया है । पुनश्च उनका मूल विषय न्याय था, अतः क्लिष्टता और रूक्षता प्रतिभाषित होना स्वाभाविक ही है । अतएव अकलंक . के भाव को आत्मसात् करना श्रमसाध्य तो कहा ही जायेगा, फिर भी अभ्यास करने अर्थ- गाम्भीर्य को सुपाच्य बनाया जा सकता है। 1 आ० अनन्तवीर्य का निम्न वाक्य अकलंक के ग्रन्थ- गाम्भीर्य की प्रशंसा तु · द्रष्टव्य है 37 देवस्यानन्तवीर्योऽपि पदं व्यक्तुं तु सर्वतः । न जानीतेऽकलंकस्य चित्रमेतद्परं भुवि । ।' अर्थ- यह बड़े आश्चर्य की बात है कि अनन्तवीर्य (अनन्त बलशाली) भी अकलंकदेव के पर्दों को पूर्णतया व्यक्त करने में असमर्थ हैं। तत्त्वार्थवार्त्तिक अपेक्षाकृत सरल भाषा में लिखा गया है और विस्तारपूर्ण शैली के कारण सुगम है। साथ ही सिद्धान्त और दर्शन के विषयों को आचार्य ने रोचक एवं प्रसन्न शैली में व्यक्त करने का प्रयास किया है। १. सिद्धिविनिश्चय टीका
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy