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जैन-न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान
के प्रत्येक सूत्र पर वार्तिक रूप में व्याख्या की है। यह वृहद् एवं विशद टीका तत्त्वार्थवार्तिक के नाम से प्रख्यात है। इसे राजवार्तिक भी कहा जाता है। यह तर्क, आगम और अनुमान द्वारा जैनदर्शन को स्पष्ट करने में सक्षम है। इसमें दर्शन एवं सिद्धान्त के अनेक विषयों की चर्चा के साथ विविध प्रकार के ऊहापोह और मत-मतान्तरों के समाधान के साथ अनेकान्तवाद की प्रतिष्ठा की गई है। ___ज्ञात होता है कि सर्वार्थसिद्धि से अवशिष्ट एवं अनिवार्य रूप से अपेक्षित विषयों को पूरा करने हेतु अकलंकदेव ने तत्त्वार्थवार्तिक की रचना की है, यह गद्यात्मक है। वार्तिकों को पृथक् रूप से लिखकर उन पर अर्थ-व्याख्या रूप स्वोपज्ञ भाष्य भी प्रकट किया गया है। इसी हेतु उन्होंने अध्यायों की समाप्ति या पुष्पिकाओं में इसे 'तत्त्वार्थवार्त्तिकव्याख्यानालंकार' विशेषण दिया है। यह टीका जैनदर्शन का अध्ययन करने हेतु पूर्ण रूप से पर्याप्त साधन है। भारतीय दर्शन साहित्य एवं विशेषतया जैन दर्शन के क्षेत्र में इस ग्रन्थ का विशिष्ट स्थान है। इसी को आधार बनाते हुए अकलंक वाङ्मयरूपी कमल के रसिक आ० विद्यानन्द ने “तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक” की रचना की है।
अष्टशती- तत्त्वार्थसूत्र की प्रथम टीका न्याय के मूर्धन्यमणि आ० समन्तभद्र ने गन्धहस्ति महाभाष्य नाम से ८४ हजार श्लोक प्रमाण लिखी थी जो सम्प्रति अप्राप्त है। इसके अंशों को परवर्ती आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में उद्धृत किया है। इसका मंगलाचरण मात्र “देवागम” नामक स्तोत्र ११४ श्लोकों में निबद्ध वर्तमान में उपलब्ध है जो आचार्य की न्याय विषयक प्रतिभा या प्रभावना एवं सदिच्छा का परिचायक है। इस पर आ० अकलंकदेव ने ८०० श्लोकों में अष्टशती नामक टीका लिखी है। यह टीका अनेकान्तात्मक जैनदर्शन की स्थापना एवं प्रभावना हेतु समर्थ है। इसकी गूढ़ता एवं क्लिष्टता को हृदयंगम कर ही आ० विद्यानन्द ने इस पर अष्टसहस्री व्याख्या लिखी है, जिसमें अष्टशती के हार्द को खोलने का विशद प्रयास किया है। अकलंक की गम्भीर शैली को समझने हेतु अष्टसहस्री का सहारा लेना पड़ता है। अष्टसहस्री का हिन्दी अनुवाद वर्तमान में पू० गणिनी आर्यिका ज्ञानमती माता जी ने किया है। इस अष्टसहस्री को देशभाषा में प्रकट करने हेतु वे प्रशंसनीय हैं। अष्टशती का एकादि वाक्य दृष्टव्य है। ____ “तेन मणेः कैवल्यमेव मलादेवैकल्यम् । कर्मणोऽपि वैकल्यमात्मकैवल्यमस्त्येव ततो नातिप्रसज्यते।"
अर्थ- मणि का केवल अपने स्वरूप से रहना ही मलादिक से विकल होना है, १. देवागम, कारिका ४ की टीका