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कुशल टीकाकार आचार्य अकलंकदेव
जान पड़ते हैं। वर्तमान में उनके दो टीकाग्रन्थ उपलब्ध हैं- १. तत्त्वार्थवार्तिक और . २. अष्टशती। इनकी अन्य स्वतंत्र कृतियां हैं, स्वरूप-सम्बोधन, वृहत्त्रयम्, न्याय-चूलिका, अकलंक-स्तोत्र । इन रचनाओं से जान पड़ता है कि इनका आगम और अध्यात्म-दोनों क्षेत्रों में प्रबल प्रवेश था।
सभाष्य लघीयस्त्रय- तीन लघु प्रकरणों के समावेश के कारण इसका नाम लघीयस्त्रय सार्थक रूप में निर्दिष्ट किया गया है। प्रमाण, नय, निक्षेप के विषय को आ० अकलंकदेव ने ७८ कारिकाओं में वर्णित किया है। यह न्याय का अपूर्व ग्रन्थ है। अकलंक ने अनिवार्य रूप से आवश्यक समझकर विवृति भी लिखी है, जिससे विषय पूर्ण और स्पष्ट हो जाता है। इस पर आ० प्रभाचन्द्र ने 'न्यायकुमुदचन्द्र' नामक व्याख्या लिखी है।
न्यायविनिश्चय सवृत्ति- इसमें ४८० कारिकायें हैं। कारिकाओं के साथ उत्थानिका वाक्य तथा विषय संकेत रूप वृत्ति लिखकर आ० अकलंकदेव ने अति क्लिष्ट, रूक्ष, सूक्ष्म और गम्भीर न्याय विषय को हृदयंगम करने हेतु प्रस्तुत किया है। इसकी आ० वादिराजकृत टीका “न्यायविनिश्चय विवरण” उपलब्ध है।
सिद्धिविनिश्चय सवृत्ति- प्रस्तुत ग्रन्थ में १२ प्रस्तावों के अन्तर्गत प्रमाण, नय, निक्षेप का विवेचन करते हुए उन प्रस्तावों को सिद्ध किया है अथवा प्रस्तावों के द्वारा विषय सिद्धि की गई है। परवादियों पर विजय प्राप्त करने हेतु ग्रन्थ अति उपयोगी है।
आ० अनन्तवीर्य ने इस पर प्रसिद्ध टीका लिखी है। : प्रमाणसंग्रह सवृत्ति- कुल ६ प्रस्तावों और ८७-१/२ कारिकाओं में विभक्त प्रमाण विषयक प्रस्तुत ग्रन्थ अपनी विशेषता से न्याय जगत् में प्रसिद्ध है। संस्कृत गद्य
व पद्य में निबद्ध यह रचना बहुत जटिल है। स्वोपज्ञ वृत्ति लिखकर आ० अकलंकदेव . . ने विषय को स्पष्ट रूप से हृदयंगत कराने का प्रयास किया है। यह कुल ९०० श्लोक
प्रमाण है। इस पर आ० अनन्तकीर्ति की “प्रमाणसंग्रहालंकार” नाम की संस्कृत टीका
- तत्त्वार्थवार्तिक - जैन वाङ्मय में प्रतिनिधि ग्रन्थ के रूप में मान्यता प्राप्त बहुआयामी एवं चतुरनुयोगी ग्रन्थराज आ० उमास्वामीकृत तत्वार्थसूत्र की महती महिमा है। इस पर आ० देवनन्दी पूज्यपादकृत सवार्थसिद्धि प्रसिद्ध टीका है। इसी सर्वाथसिद्धि को वृक्ष में बीज की भांति पूर्णतया समाविष्ट करते हुए आ० अकलंकदेव ने तत्त्वार्थसूत्र
१. जैनेन्द्र सिद्धान्तकोश