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________________ जैन- न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान T न्यायमूर्ति अकलंक - द्वादशांग के अन्तिम अंग दृष्टिवाद के पूर्वगत भेद के अन्तर्गत “ज्ञानप्रवाद” नाम का पंचम पूर्व है । उसमें न्याय का विषय गर्भित है । इसमें. प्रमाण, नय, निक्षेप का स्वसमय - परसमय, ३६३ प्रकार के एकान्त, षड्दर्शन, अनेकान्त-स्याद्वाद और न्याय के विविध रूप आदि का वर्णन है, इसी में से अकलंक देव का प्रिय विषय अवतरित हुआ है। जैनन्याय के सर्वप्रथम प्रस्तोता या सार्वजनिक रूप में संस्थापक आ० समन्तभद्र कहे जाते हैं । उनके द्वारा न्याय तरुण अवस्था को प्राप्त कर चुका था उसे यौवन के उभार पर लाने का श्रेय भट्ट उपाधि प्राप्त अकलंक देव को है । प्रकृत हेतुविद्या या प्रमाणविद्या, जिसे आन्वीक्षिकी, न्याय, तर्क आदि नामों से उल्लिखित किया जाता है, के प्रचारक एवं पोषक अकलंकदेव ही हैं। उनका सर्वांग ही न्यायपूरित था, उन्हें न्यायमूर्ति कहना प्रासंगिक होगा । अकलंक ने समन्तभद्र स्वामी ं के कार्य को उन्नति के शिखर पर स्थापित किया। डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री के शब्दों में कहा जा सकता है कि जैन - परम्परा में यदि समन्तभद्र जैनन्याय के दादा हैं तो अकलंक पिता। ये बड़े प्रखर तार्किक और दार्शनिक थे। बौद्धदर्शन में जो स्थान धर्मकीर्ति को प्राप्त है, जैनदर्शन में वही स्थान अकलंकदेव का है।' जैसे अध्यात्म के क्षेत्र में निर्ग्रन्थ जैन- आम्नाय को कुन्दकुन्द - आम्नाय कहा जाता है, उसी प्रकार जैनन्याय को अकलंक - न्याय के रूप में मान्यता प्राप्त है। महाकवि धनंजय ने अकलंक के प्रमाण की प्रशंसा करते हुए उचित ही कहा हैप्रमाणमकलंकस्य पूज्यपादस्य लक्षणम् । धनंजयकवेः काव्यं रत्नत्रयमपश्चिमम् ।। 34 अर्थात् अकलंकदेव का प्रमाण, पूज्यपाद का लक्षण और धनंजय कवि का काव्य (द्विसन्धान) अपश्चिम रत्न हैं । अकलंकदेव की टीकायें व स्वतंत्र ग्रन्थ- जैन वाङ्मय में अकलंक कुशल टीकाकार के रूप में एक विशिष्ट स्थान निर्मित करते हुए अवतरित होते हैं। यद्यपि उन्होंने स्वतंत्र ग्रन्थों के रूप में लघीयस्त्रय, न्यायविनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय और प्रमाण-संग्रह नामक न्याय विषयक ग्रन्थों की रचना की है, तथापि उन पर स्वोपज्ञ वृत्ति और भाष्य लिखकर उन्हें टीका ग्रन्थ भी बना दिया है। उन्हें मौलिक एवं टीका- दोनों ही साहित्यिक विधाओं में लेखन का प्रतिभापूर्ण अधिकार था । आश्चर्य यह था कि उनके टीका ग्रन्थ मौलिक ज्ञात होते हैं एवं मौलिक ग्रन्थ सभाष्य होने से टीका ग्रन्थ १. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा द्वितीय खण्ड, पृष्ठ ३०० २ नाममाला
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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