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कुशल टीकाकार आचार्य अकलंकदेव
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गतिमान् हो गया। सरस्वती-वरदान से विभूषित श्रेष्ठ पुत्र के रूप में प्रमाणित होकर के लेखकों में अग्रणी एवं वादीगण के मध्य सिंह की भांति प्रतीत होते हैं। वादीभसिंह उपाधि के वे सार्थक कीर्तिमान् थे।
____ उनके जीवनवृत्त के विषय में ऐतिहासिक विभिन्नतायें दृष्टिगोचर होती हैं। कथाकोष के अनुसार अकलंक मान्यखेट के राजा शुभतुंग के मंत्री पुरुषोत्तम के पुत्र थे। राजबलिकथे में उन्हें कांची के जिनदास ब्राह्मण का पुत्र उल्लिखित किया गया है। तत्वार्थवार्तिक के प्रथम अध्याय के अन्त में उपलब्ध प्रशस्ति से वे राजा लघुहव्व के पुन्न हैं जिनका परिचय अप्राप्त है। समग्र इतिहास का संक्षेप में सार यह है कि वे दक्षिण देश के निवासी थे। बाल्यावस्था से ही अकलंक और निष्कलंक दोनों भाइयों ने मुनिराज के धर्मोपदेश से आजीवन ब्रह्मचर्य-व्रत लेकर विद्याध्ययन किया। कांची में बौद्ध विद्यालय में छड्मवेश में षड्दर्शन एवं विशेष रूप से बौद्धदर्शन में पारंगत हो गये। कारणवश छद्म विदित हो जाने पर निष्कलंक का बलिदान हुआ। येन-केन प्रकारेण अकलंक बच निकले। उन्होंने निर्ग्रन्थ दीक्षा अंगीकार कर सुधापुर के देशीय गण का आचार्य पद सुशोभित किया। उनका अभिप्रेत था जैनदर्शन का सर्वतोमुखी प्रचार। वाद-विवाद के उस युग में विशेष रूप से उन्होंने बौद्धों से शास्त्रार्थ कर उन्हें पराजित किया। वे प्रत्येक स्थल पर. सफल रहे। चाहे राजा सहसतुंग की सभा का प्रसंग हो, चाहे शैवों द्वारा प्रार्थना किये जाने पर राजा हिमशीतल की सभा में बौद्धदेवी तारा से वाद का अवसर। सभी में अकलंक ने अपनी अद्वितीय वाद-प्रतिभा से बौद्धों को पराजित कर जैन धर्म की प्रभावना की। समस्त जैन समुदाय के कोल्हू में पेरे जाने की शर्त लगने पर उन्होंने जिस अदम्य साहस, वीरता, दूरदर्शिता और तर्क-कौशल का परिचय देकर जैनधर्म, समाज की रक्षा एवं प्रभावना की, वह घटना-चक्र जैन धर्म के इतिहास का स्वर्णिम पृष्ठ है। विजयी होने पर अकलंक ने बौद्धों को क्षमा प्रदान की। अहिंसा का प्रतिपालक साधु बौद्धों को कोल्हू में पेर दिये जाने पर कैसे सहमत हो सकता था। प्रभावना का अर्थ तो हृदय परिवर्तन मात्र है।
वस्तुतः अकलंक वादविद्या में सिंह के समान निर्भीक-वृत्ति वाले थे। ग्रन्थों और शिलालेखों में उनके प्रति उपाधियों का भण्डार प्राप्त होता है, वे प्रशंसा के केन्द्र-बिन्दु हैं। लघु समन्तभद्र ने अष्टसहस्री की उत्थानिका में उन्हें “सकलतार्किकचक्र• चूडामणि-मरीचिमेचकितचरणनखकिरण' विशेषण से ठीक ही विभूषित किया है।'
१. अष्टसहस्री अनुवाद, आर्यिका ज्ञानमतीकृत, पृष्ठ २