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________________ कुशल टीकाकार आचार्य अकलंकदेव ___पं० शिवचरन लाल जैन एकान्तवादीन्नैयायिकादीन्, स्याद्वादसिद्धान्तबलेन जित्वा। यः धर्मरक्षामकरोत् स सन्मते, मिथ्यान्धकारं दूरं कुष्च ।। अकलंकः गुरुर्जीयान्नयन्यायविदांवरः। सकलंक-प्रमाणं यः निष्कलंकमुपाकरोत् ।। प्रणमामि ज्ञानसागरमकलंक-नयप्रभावकर्तारम् । सम्प्रत्युत्तरदेशे विलसति नयज्ञेषु यः सम्यक् ।। जिन्होंने नैयायिक आदि एकान्तवादियों को स्याद्वाद सिद्धान्त के बल से विजित कर धर्मरक्षा की, ऐसे हे तीर्थंकर सन्मति देव! मिथ्यात्व रूप अन्धकार को दूर कीजिए। जो नय और न्यायविद्या के ज्ञाताओं में श्रेष्ठ हैं एवं जिन्होंने (एकान्तवाद से दूषित) सकलंक प्रमाण-विद्या को निष्कलंक अर्थात् अनेकान्त के प्रयोग से निर्मल किया, वे आचार्य अकलंकदेव से सदैव चिरंजीवी हों। — मैं उन चारित्र से निष्कलंक, निर्दोष आचरण वाले पू० उपाध्याय ज्ञानसागर जी महाराज को प्रणाम करता हूँ जो जैन नयवाद के प्रभावनाकर्ता हैं एवं जो वर्तमान में उत्तरदेश में नयज्ञ विद्वानों के मध्य सम्यक् सुशोभित हैं। ' अन्तिम तीर्थकर्ता विश्ववंद्य भगवान् महावीर के अनेकान्त शासन की जो अविच्छिन्न धारा अद्यावधि प्रशस्त रूप से प्रवाहित हो रही है, उसमें परम्पराचार्यों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। गौतम गणधर के द्वारा ग्रंथित जिनवाणी को सुरक्षित एवं पल्लवित रूप में हम तक पहुँचाने का भागीरथ प्रयत्न श्रुतधर एवं सारस्वताचार्यों द्वारा यदि न किया गया होता तो हम जैन-सिद्धान्तों से परिचित न होते। दर्शन-धर्म, आचार-विचार और संस्कृति ही नष्ट हो गई होती। इसी कोटि में प्रातःस्मरणीय, जिनसिद्धान्त-प्रभावक एवं कुशल टीकाकार आचार्य अकलंकदेव का स्थान प्रथम पंक्ति में विराजित आचार्यों के मध्य स्थापित करना सुसंगत होगा। आचार्य अकलकदेव में दर्शन और सिद्धान्त दोनों का संगम था। वे लेखनी और वाणी के समान रूप से वैभवशाली थे। इतिहास के पृष्ट इस विषय के साक्षी हैं कि सातवीं शताब्दी का यह महान् सन्त किस प्रकार अपने बलिदानी व्यक्तित्व के परिवेश में जिनशासन के माहात्म्य को सूर्य के समान प्रकाशित कर मोक्षमार्ग में
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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