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जैन-न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान
के १०२० ई०, वादामी १०३६, यल्लादहल्लि १०५४ ई०, कडवत्ति १०६० ई, बन्दलिके १०७४ ई०, बलगाम्बे १०७७ ई०, आलहत्लि ११२० ई०, चामराजनगर १११७ ई०, कल्लूरगुड्ड ११२१ ई०, चल्लग्राम शक सं० १०४७, वेलूर १०५६ (शक) आदि लगभग ५०० शिलालेखों में अकलंक का नाम बड़े सम्मान के साथ लिया गया है।
अकलंक का परवर्ती जैन साहित्य तो उनके गुणानुवाद से भरा पड़ा है। और हो भी क्यों न, जैनन्याय को उनका अवदान अप्रतिम है, जैनधर्म की रक्षा करने वालों में उन जैसा उदाहरण इतिहास में दूसरा नहीं मिलता। कुवादियों को शास्त्रार्थ में परास्त करने वाले अकलंक हम सभी के वन्दनीय हैं। अकलंक के ग्रन्थों के टीकाकारों ने उनका नाम जिस सम्मान के साथ लिया है, उसके वे शत-प्रतिशत अधिकारी हैं। न्यायकुमुदचन्द्रकर्ता आचार्य प्रभाचन्द्र ने अकलंक को 'अशेषकुतर्कविभ्रमतमोनिर्मूलनकर्ता' 'अगाधकुनीतिसरित्शोषक' 'स्याद्वादकिरणप्रसारकः,' 'समस्तमतवादिकरीन्द्रदर्प- मुन्मूलकः' 'स्याद्वादकेसरी' 'पंचानन' आदि अलंकरणों से अलंकृत किया है। यथा
'येनाऽशेषकुतर्कविभ्रमतमोनिर्मूलमुन्मूलितम्... स्फारागाधकुनीतिसार्थसरितो निःशेषतः शोषिताः। स्याद्वादाप्रतिसूर्यभूतकिरणैः व्याप्तं जगत् सर्वतः
स श्रीमानकलंक-भानुरसमो जीयात् जिनेन्द्रः प्रभुः ।। इत्थं समस्तमतवादिकरीन्द्रदर्पमुन्मूलयन्नमलमानदृढप्रहारैः ।
स्याद्वादकेसरसदाशततीव्रमूर्तिः पंचाननो भुवि जयत्यकलंकदेव ।।' लघीयस्त्रय तात्पर्यवृत्ति में अमरचन्द्रसूरि ने अकलंक को 'जिनाधीश'-सकल तार्किकचक्रचूडामणिः, 'अकलंकशशांकः' आदि विशेषणों से युक्त बताया है। सिद्धिविनिश्चय टीका में अनन्तवीर्याचार्य ने अन्य विशेषणों के साथ ही उन्हें 'परहितावधानदीक्षित' और 'समदर्शी' कहा है। न्यायविनिश्चय-विवरण में वादिराजसूरि ने उन्हें 'तार्किकलोकमस्तकमणि' उपाधि से स्मरण किया है। आप्तमीमांसा पर भाष्य लिखने वाले आचार्य विद्यानन्द ने अष्टसहनी में अकलंक को 'वृत्तिकार' 'विगलिततिमिरादिकलंकः' 'निरस्तग्रहोपरागाद्युपद्रवः' 'विगलितज्ञानावरणादिद्रव्य-कर्मात्मकलंकः' आदि अलंकरणों से अलंकृत किया है। लघु समन्तभद्र ने भी उन्हें 'सकलतार्किकचूडामणि' 'भट्टाकलंकदेव' 'वार्तिककार' १. न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० ५२१ तथा ६०४ २. लघीयस्त्रय तात्पर्यवृत्ति, पृ०१८, ६६, ७३, १०३ आदि ३. सिद्धिविनिश्चय टीका, पृष्ठ २६० ४. न्यायविनिश्चय-विवरण, पृ० ३६६ ५. अष्टसहन, अनेक पृष्ट