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आचार्य अकलंकदेव के विशेषण एवं उपाधियाँ
है।' तारा विजेता के रूप में उनकी स्तुति बोगदि (११४५ ई०) के एक भग्न शिलालेख में भी की गई है।
हुम्मच के ११४७ ई० के एक खम्भे पर उत्कीर्ण संस्कृत-कन्नड भाषामय शिलालेख में उन्हे 'जिनमतकुवलयशशांक' कहा गया है। चन्द्रगिरि पर्वत के ही महानवमी मंडप के स्तम्भ पर उत्कीर्ण एक शिलालेख में अकलंकदेव को 'महामति'
और 'जिनशासनालं कर्ता' कहा गया है। यह लेख शक सं० १०८५ का है। जोडि वसवनपुर में हुण्डि-सिदरन चिक्क के खेत में पाये गये संस्कृत-कन्नड भाषामय ११८३ ई० के शिलालेख में अकलंक को अपनी प्रबल शास्त्रार्थ विजयों के द्वारा बौद्ध पण्डितों को मृत्यु तक का आलिंगन कराने वाला बताया गया है। यथा
'तस्याकलंकदेवस्य महिमा केन वर्ण्यते।
यद् वाक्यखंगघातेन हतो बुद्धो विबुद्धिसः ।। ___ विन्ध्यगिरि पर्वत सिद्धरवस्ति में उत्तर की ओर एक स्तम्भ पर उत्कीर्ण शिलालेख में अकलंकदेव को 'भट्टाकलंक', 'सौगतादि खण्डन कर्ता' तथा 'समन्तादकलंकः' कहा है। यथा
"भट्टाकलंकोऽकृतः सौगतादिदुर्वाक्यपंकस्सकलंकभूतं
___ जगत्स्वनामेव विधातुमुच्चैः सार्थ समन्तादकलंकमेव ।। . सिद्धरबस्ति के ही एक अन्य स्तम्भलेख में अकलंक को 'शास्त्रविद् मुनीनां अग्रेसर' 'सूरि' 'मिथ्यान्धकार विनाशक' और 'अखिलार्थप्रकाशक' कहा गया है। यथा
। 'ततः परं शास्त्रविदां मुनीनामग्रेसरोऽभूदकलंकसूरिः। - मिथ्यान्धकारस्थगिताखिलार्थां, प्रकाशितायस्य वचोमयूखैः।।'
सोंदा (उत्तर कन्नड) मैसूर के १६०७ ई० के एक शिलालेख में ‘स्याद्वादन्यायवादि' के रूप में अकलंक स्तुत हैं। - इनके अतिरिक्त इंचवादि (मैसूर) के १०वीं शती के, सुकदरे (होणकेटी परगना)
१. वही, तृ० भाग, ३५० २. वही, तृ० भाग पृ० ४६ ३. वही, तृ० भाग पृ० ६६ .४. वही, प्र० भाग पृ०२४ ५. वही, तृ० भाग पृ०२०६ ६. वही, तृ० भाग पृ०१६५ ७. वही, प्र० भाग पृ०२११ ८. वही, प्र० भाग पृ० ३३८