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________________ जिनशासन-प्रभावक आचार्य अकलंकदेव आजीवन किया। उन सरीखा दृढ़प्रतिज्ञव्यक्तित्व बिरला ही होता है। 'आत्मा प्रभावनीयो रत्नत्रयतेजसा सततमेव' की अन्तरंग प्रभावना की व्याख्या को उन्होंने अपने आचरण में उतार लिया था। अप्रतिम प्रभावक आचार्य : इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य अकलंकदेव ने अपने कृतित्व और कर्तृत्व -दोनों से धर्म की महती प्रभावना की। उसकी सुगन्ध आज भी दसों दिशाओं में व्याप्त है। राजवार्त्तिक में उन्होंने लिखा है कि तीन कार्यों से धर्म की प्रभावना होती है १.परसमयरूपी जुगनुओं के प्रकाश को पराभूत करने वाले ज्ञान रवि की प्रभा से २.इन्द्र के सिंहासन को कंपा देने वाले सम्यक् तपश्चरण से तथा ३.भव्यजनरूपी कमलों को विकसित करने के लिए सूर्य-प्रभा के समान सद्धर्म का प्रकाश करने से। आचार्य अकलंकदेव के जीवन में ये तीनों ही बातें साकार हुई हैं। निःसन्देह वह अप्रतिम जिनशासन-प्रभावक आचार्य थे। हम सबको भी देव-दुर्लभ इस मानव-जीवन को इस तरह जीना चाहिए कि जिससे जिनधर्म की प्रभावना हो।
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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