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जैन-न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान
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हो गए। जो शेष रह गए, वे लोग लंका आदि सुदूर देशों में जाकर बस गए।
इस दिग्गज वाद-केशरी के विजय एवं प्रचार अभियान पर अपना अभिमत व्यक्त करते हुए ब्रह्म अजितसेन ने 'हनुमच्चरित' में लिखा है
अकलंकगुरु यादकलंकपदेश्वरः ।
बौद्धानां बुद्धि-वैधव्य-दीक्षागुरुरुदाहृतः।। . अर्थात् जिनके सामने बौद्ध विद्वानों की बुद्धि विधवा-जैसी दशा को प्राप्त हो गई, वे बौद्धों की बुद्धि को वैधव्य दीक्षा देने वाले अकलंक पद के अधिपति अकलंक गुरु जयवन्त हों। आचार्य अकलंकदेव का कृतित्व :
आचार्य समन्तभद्र के सुयोग्य उत्तराधिकारी आचार्य अकलंकदेव ने एक ओर तो शास्त्रार्थों के द्वारा जैनदर्शन का सही रूप प्रस्तुत कर समस्त आक्षेपों का निराकरण किया, वहीं दूसरी ओर अनेक महान् ग्रन्थों की रचना कर जैन भारती को समृद्ध बनाया। उनके द्वारा रचित ग्रन्थ दो प्रकार के हैं- (१) तत्त्वार्थवार्तिक एवं (२) अष्टशती। मूल ग्रन्थ चार हैं- (१) लघीयस्त्रय, (२) न्यायविनिश्चय (३) सिद्धि विनिश्चय एवं (४). प्रमाण-संग्रह। इन चारों पर ही उनकी स्वोपज्ञ वृत्तियां भी हैं।
ये सभी ग्रन्थ कितने गूढ, गहन, संक्षिप्त और अर्थबहुल हैं, इसका पता इस बात से लगता है कि इन पर परवर्ती आचार्यों ने बड़े-बड़े भाष्य लिखे हैं। उनके सभी ग्रन्थों में प्रमेय विषयों की चर्चा तो महत्त्वपूर्ण है ही, प्रमाणों के वर्णन और वर्गीकरण का उनका कार्य अधिक मौलिक और महत्त्व का है उनकी रचनाओं में षट्दर्शनों का गम्भीर और सूक्ष्म चिन्तन मिलता है। अनेकान्त सिद्धान्त की सार्थकता को सप्रमाण सिद्ध करने वाले तलस्पर्शी पाण्डित्य के धनी आचार्य अकलंकदेव जैनदर्शन की गौरव-गरिमा को सुरक्षित रखने के लिए विधि के एक अपूर्व वरदान की तरह हैं। शिलालेखों में उन्हें तर्कभूवल्ल्भ, महर्धिक, समस्तवादकरीन्द्रदर्पोन्मूलक, अकलंक-भानु, सकलतार्किकचन्द्रचूड़ामणि सरीखे महान् विशेषणों से विभूषित किया गया है। वह अपने समय के एक युग-निर्माता महापुरुष थे। बाल ब्रह्मचारी :
बचपन में अपने माता-पिता के साथ एक बार उन्होंने जैन मुनि श्री रविगुप्त महाराज के दर्शन किए थे और उनके उपदेशों से प्रभावित होकर उन्होंने आठ दिन के लिए ब्रह्मचर्य व्रत लिया था, किन्तु इस असिधारा व्रत का निरतिचार निर्वाह उन्होंने