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जिनशासन-प्रभावक आचार्य अकलंकदेव
है कि उन्होंने कमल-पत्रों के बहाने जिन-शासन की ही शरण ली थी। भागते हुए निकलंक और पास आती घोड़ों की टापों की आवाज को सुनकर कपड़े धो रहा धोबी डर गया और वह भी निकलंक के साथ भागने लगा। अश्वारोहियों ने उन्हें अकलंकनिकलंक समझकर मौत के घाट उतार दिया। वीर निकलंक ने अपने इस बलिदान से धर्म-प्रभावना की पीठिका पर अपने यश-गौरव के अमिट चिह्न अंकित कर इतिहास में सदा-सदा के लिए अपना नाम लिख दिया। शास्त्रार्थों में अभूतपूर्व विजय :
___ कलिंग देश के रत्नसंचयपुर के पल्लववंशी राजा हिमशीतल चालुक्य-सम्राट पुलकेशी द्वितीय के समकालीन और बौद्धगुरु संघश्री के शिष्य थे। इनकी रानी मदनसुन्दरी बड़ी धर्मात्मा और जिनधर्म परायणा थी। फाल्गुन की अष्टाह्निका में उसने जिनेन्द्र भगवान् की विराट रथयात्रा निकालने का विचार किया, किन्तु बौद्धगुरु ने यह शर्त लगवा दी कि उन्हें शास्त्रार्थ में हराए बिना रथ नहीं निकल सकता। रानी के सामने एक बड़ा धर्म-संकट उपस्थित हो गया। उसने सत्याग्रह का सहारा लिया और प्रतिज्ञा की कि जब तक कोई जैन विद्वान् बौद्धगुरु से शास्त्रार्थ के लिए सहमत नहीं होता, तब तक वह आहार ग्रहण नहीं करेगी। जैनविद्या के धुरंधर विद्वान् अकलंक ने यह सुना तो वह रत्नसंचयपुर आए और उन्होंने शास्त्रार्थ के लिए अपनी स्वीकृति प्रदान की। अकलंकदेव के स्याद्वाद महान्याय के सामने पहले दिन ही संघ-श्री का पसीना छूटने लगा। उनके अकाट्य तर्कों का कोई उत्तर उनसे देते नहीं बना। उसने बौद्ध देवी तारा को सिद्ध किया हुआ था। दूसरे दिन से उसके आह्वान पर तारादेवी घट में स्थित होकर पर्दे के पीछे से शास्त्रार्थ करने लगी। शास्त्रार्थ छह माह तक चलता रहा। दैवी शक्ति के सामने भी अकलंक भारी पड़ रहे थे। अन्त में चक्रेश्वरी देवी ने प्रकट होकर अकलंक को कुछ दिशा-निर्देश दिए और उसका अनुसरण करने पर इस षड्यन्त्र का भांडा फूट गया। तारादेवी भाग खड़ी हुई और जैनधर्म की विजय-पताका फहराने लगीं। .. शास्त्रार्थ में विजय-प्राप्ति के बाद जैन रथ गाजे-बाजे से निकला। राजा हिमशीतल ने अपनी सम्पूर्ण प्रजा के साथ जैनधर्म के स्वीकार करने की घोषणा की। अद्भुत और अभूतपूर्व धर्म-प्रभावना हुई। ... राष्ट्रकूट वंशी राजा सहनतुंग की राजसभा में भी आचार्य अकलंकदेव ने बौद्ध विद्वानों को वाद में परास्त किया और उसके बाद उन्होंने सम्पूर्ण भारत में घूम-घूमकर जैनधर्म का प्रचार किया। शास्त्रार्थ में पराजित होकर अधिकांश बौद्ध जैन