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जैन - न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान
के बादौं कांचीपुर की महाबोधि विद्यापीठ में अपना धर्म छिपाकर किसी प्रकार प्रवेश प्राप्त करने में सफल हुए । विद्याध्ययन करते समय उन्हें अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।
निकलंक का बलिदान :
अकलंक और निकलंक दोनों ही भाई प्रतिभा सम्पन्न थे । अकलंक एकसंस्थ और निकलंक द्विसंस्थ थे अर्थात् अकलंक एक बार में और निकलंक दो बार में किसी पाठ को सुनकर याद कर लेते थे । जैनधर्म के प्रेम में दीवाने इन दोनों नवयुवकों ने इस विद्यापीठ में अध्ययन करते हुए बौद्धधर्म का पर्याप्त ज्ञान अर्जित कर लिया था ।.
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बौद्ध गुरु एक दिन दिङ्नाग कृत अनेकान्त खण्डन का कोई प्रकरण पढ़ा रहे थे। पाठ की किसी अशुद्धि के कारण पाठ को समझने और समझाने में रुकावट आ रही थी । अतः उस दिन पढ़ाने का अवकाश कर वह घर चले गए। रात्रि को अकलंक ने किसी को बताए बिना अपनी प्रत्युत्पन्नमति से उस पाठ को शुद्ध कर दिया । . प्रातः काल शुद्ध पाठ देखकर गुरुजी का माथा ठनका और उन्हें छद्म वेष में किसी जैन छात्र की उपस्थिति का सन्देह हो गया। पता लगाने के लिए अनेक उपाय किए गए
(१) सबसे शपथ ली गई, किन्तु भेद नहीं खुला।
(२) एक. जैनमूर्ति को लांघने के लिए कहा गया । अकलंक ने अपने उत्तरीय से एक धागा निकालकर मूर्ति के ऊपर डाल दिया और वे दोनों भाई उसे सरागी मानकर उसका उल्लंघन कर गए। यह कार्य चूंकि पलक झपकते हो गया, इसलिए इस रहस्य को कोई भी न जान सका ।
(३) रात्रि में जब सभी छात्र गहरी नींद में थे, तब अचानक छत से कासे के बर्तन नीचे गिराए गए। तेज झन्नाटेदार आवाज से किसी आसन्न संकट की आशंका से भयभीत सभी छात्र जहां 'बुद्धं शरणं गच्छामि' का जाप करने लगे, वहां अकलंक-निकलंक के मुख से णमोकार मन्त्र निकल रहा था ।
पंचनमस्कार मन्त्र के स्मरण और उच्चारण से जैन
रूप में उनकी पहचान
हो गई और उन्हें कारागार में बन्द कर दिया गया।
किसी युक्ति से द्वारपालों की निगाहों से बचते हुए ये दोनों भाई कारागार से भाग निकले। राजाज्ञा से इन्हें पकड़ने और मारने के लिए अश्वारोही सैनिक भेजे गए निकलंक ने अपने प्राणों की चिन्ता न कर अकलंक से जिनधर्म की सेवार्थ अपनी प्राण-रक्षा करने की साश्रु नयनों से प्रार्थना की। निकटस्थ सरोवर में स्थिर घने कमल-पत्रों के पीछे छिपकर अकलंक ने अपने को बचा लिया । ब्रह्म नेमिदत्त ने लिखा