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________________ जिनशासन-प्रभावक आचार्य अकलंकदेव आचार्य अकलंक : जैन न्यायाकाश के सूर्य : जैनदर्शन के दिग्गज व्याख्याताओं में अपने अतुल और अमल ज्ञान-बल से एकान्तवादियों के द्वारा निरूपित मिथ्यामतों का खण्डन जिस तेजस्विता से आचार्य समन्तभद्र और आचार्य अकलंकदेव ने किया है, वह जैन इतिहास में अप्रतिम है। आचार्य समन्तभद्र को जैनन्याय के दादा और अकलंक को पिता के समान माना जाता है। इन दोनों आचार्यों की टक्कर में अन्य कोई भी तार्किक कहीं नहीं टिकता। आचार्य अकलंकदेव तो जैन न्यायाकाश के सूर्य ही हैं। उनके विषय में श्रवणबेलगोला के अभिलेख संख्या ४७ में लिखा है . 'षट्तर्केष्वकलंकदेवविबुधः साक्षादयं भूतले' । अर्थात् अकलंकदेव षट्दर्शन और तर्कशास्त्र में इस पृथ्वी पर साक्षात् विबुध (बृहस्पतिदेव) थे। यद्यपि आचार्य समन्तभद्र के काल को जैनन्याय के विकास का आदिकाल कहा जाता है, तथापि उनके द्वारा प्रस्थापित नींव पर जैनन्याय का एक उत्तुंग एवं भव्य प्रासाद आचार्य अकलंकदेव ही खड़ा कर सके। उन्होंने जैनन्याय की जो रूपरेखा और दिशा निर्धारित की, उसी का अनुसरण उत्तरकालीन सभी तार्किकों ने किया। सर्वश्री हरिभद्र, वीरसेन, कुमारनन्दी, विद्यानन्द, अनन्तवीर्य प्रथम, वादिराज, माणिक्यनन्दी आदि मध्ययुगीन सभी आचार्यों ने उनके ही कार्य को आगे बढ़ाते हुए उन्हें यशस्वी बनाया। बौद्धविद्या का गहन अध्ययन : . आचार्य अकलंकदेव के समय देश में बौद्धधर्म का बोलबाला था। प्रमुख बौद्ध . दार्शनिक धर्मकीर्ति, नागार्जुन, दिङ्नाग, उद्योतकर आदि ने जैनधर्म के स्याद्वाद, अनेकान्त आदि सिद्धान्तों पर आक्षेप और प्रहार करते हुए उन्हें असत्य तथा अपने .. 'शून्यवाद, नैरात्म्यवाद आदि के पक्ष को सत्य सिद्ध करने की हर सम्भव कोशिश की थी। जैनधर्म को अपने शब्द-छल एवं अन्य असत् उपायों से तिरस्कृत और पराजित करने में तत्कालीन बौद्ध विद्वानों को बड़ा आनन्द आता था। अकलंक का हृदय इस स्थिति को देखकर आकुल-व्याकुल हुए बिना न रहा। अतः बौद्ध विद्वानों के प्रहारों से जैनधर्म की रक्षा करने की भावना से उन्होंने बौद्धधर्म का गहन और सूक्ष्म अध्ययन करने का निश्चय किया। . वह युग धार्मिक असहिष्णुता और अनुदारता का युग था। धार्मिक कट्टरता के कारण कोई बौद्ध गुरु किसी जैनधर्मानुयायी को अपने धर्म-दर्शन का अध्ययन नहीं करने देता था। अकलंक और उनके अनुज निकलंक अनेक बाधाओं को पार करने
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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