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________________ जिनशासन-प्रभावक आचार्य अकलंकदेव प्राचार्य नरेन्द्रप्रकाश जैन* श्रीमत परम-गम्भीर-स्याद्वादामोघलांछनम्। जीयात त्रैलोकनाथस्य शासनं जिनशासनम् ।। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को 'रत्नत्रय' कहते हैं। यह रत्नत्रय ही धर्म है। सम्यग्दर्शन धर्म का मूल है। सम्यग्दर्शन के बिना नियम से सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र नहीं होते। जैसे बीज के बिना वृक्ष नहीं होता, वैसे ही सम्यक् दर्शन के अभाव में ज्ञान और चारित्र की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और फल की प्राप्ति नहीं होती, इसलिए सभी जैनाचार्यों ने सुख की प्राप्ति के लिए सम्यग्दर्शन को भावपूर्वक धारण करने की सीख पदे-पदे की है। अष्टांग-सहित सम्यग्दर्शन ही पूर्ण माना जाता है। इन आठ अंगों में प्रभावना आठवां अंग है। सम्यग्दर्शन की यात्रा का यह अन्तिम पड़ाव है। जिन कार्यों के करने से जैनधर्म उत्कर्ष को प्राप्त हो तथा उनसे उसकी कीर्ति का विस्तार हो, उनका सम्पन्न होना प्रभावना है। इस प्रभावना अंग के निर्दोष परिपालन से तीर्थंकर प्रकृति का भी बन्ध सम्भव है। सोलह कारण भावनायें तीर्थंकर-प्रकृति के सम्बन्ध में निमित्त हैं। धवला में कहा गया है कि इस एक मार्ग-प्रभावना में शेष पन्द्रह भावनाओं का समावेश है। इतना महत्त्वपूर्ण है यह प्रभावना अंग। प्रभावना के अनेक साधन हैं। धर्म चर्चा या धर्म-कथा के व्याख्यान से, हिंसा-रहित निर्दोष तपश्चरण से, जीवों पर दया-भाव रखने से, परवादियों पर विजय प्राप्त करने से, अष्टांग निमित्त ज्ञान से, निर्मल पूजा-भक्ति और दान आदि से धर्म की प्रसिद्धि और प्रभावना होती है। आचार्य समन्तभद्र ने प्रभावना अंग की परिभाषा प्रस्तुत करते हुए लिखा है - ___ अज्ञानतिमिरव्याप्तिमपाकृत्य यथायथम्। जिनशासन-माहात्म्यप्रकाशः स्यात्प्रभावना। अर्थात् अज्ञान रूपी अंधकार के विनाश को, जिस प्रकार बने उस प्रकार, दूर करके (समस्तमतावलम्बियों में) जिनमार्ग का प्रभाव प्रकट करना प्रभावना है। - १०४, नई बस्ती, फिरोजाबाद (उ०प्र०)
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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