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प्राचीन जैनाचार्य और उनका दार्शनिक साहित्य
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'प्रमाण-मीमांसा' यद्यपि अधूरी है, किन्तु उसके मूल सूत्र तथा उनकी वृत्ति अपना एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। प्रमाण के लक्षण में माणिक्यनंदि ने जो 'अपूर्व' पद को स्थान दिया था, आचार्य हेमचन्द्र ने उसका सयुक्तिक निरसन इस ग्रन्थ में किया है। इनकी एक 'द्वात्रिंशिका' पर मल्लिषेण ने 'स्याद्वाद मंजरी' नामक सुन्दर टीका रची है जो जैनदर्शन की वाटिका है। यशोविजयः
ईसा की सोलहवीं शती में श्वेताम्बर-परम्परा में यशोविजय बहुत ही विचारक विद्वान् हो गए हैं। इन्होंने काशी में विद्याम्यास किया था और यह 'नव्य-न्याय' में न केवल फ्टु थे किन्तु नव्य-न्याय की शैली में उन्होंने ग्रन्थ-रचना भी की है। इनकी रचनाएँ मौलिक हैं, उनमें केवल पिष्टपेषण ही नहीं हैं, किन्तु नवीन विचार-धारा प्रवाहित है। उनके दार्शनिक ग्रन्थों में जैन तर्कभाषा, ज्ञानबिन्दु और शास्त्रवार्ता-समुच्चय की टीका उल्लेखनीय हैं। उपसंहारः __ संक्षेप में यहाँ कुछ प्रमुख जैन दार्शनिकों का परिचय है। इससे पता चलता है कि जैनदर्शन के काल को दो भागों में बाटा जा सकता है। एक भट्टाकलंकदेव तक का
और दूसरा उसके बाद का काल । जैनदर्शन के विकास और निर्माण में अकलंकदेव का बहुमुखी प्रयत्न अनुपम है। उन्होंने जैन दार्शनिकों के सामने जैनेतर दार्शनिकों की दृष्टि से उपस्थित होने वाली सब समस्याओं का समाधान सर्वप्रथम करके आगे का मार्ग प्रशस्त कर दिया। उनके बाद उनके द्वारा सृजित भूमिका का आलम्बन लेकर विद्यानन्द, माणिक्यनन्दि, अनन्तवीर्य, प्रभाचन्द्र, वादिराज आदि न केवल दिगम्बराचार्यों ने बल्कि अभयदेव, देवसूरि, हेमचन्द्र, यशोविजय आदि श्वेताम्बराचार्यों ने भी अकलंक-न्याय को विस्तीर्ण किया।