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जैन - न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान
आचार्य प्रभाचन्दः
आचार्य प्रभाचन्द भी अभयदेवसूरि की टक्कर के विद्वान् थे । इन्होंने अकलंकदेव के 'लघीयस्त्रय' पर न्यायकुमुदचन्द्र नाम का और परीक्षा - मुख सूत्र पर 'प्रमेयकमल मार्तण्ड' नाम का सुविस्तृत टीकाग्रन्थ अत्यन्त प्रांजल - भाषा में निबद्ध किए हैं। पहला ग्रन्थ उनकी दार्शनिकता का और दूसरा उनकी तार्किकता का प्रतीक है। उन्होंने भी अपने ग्रन्थों में स्त्री-मुक्ति, सवस्त्र - मुक्ति और केवलि - भुक्ति का खण्डन जोरदार शब्दों में किया है। शाकटायन-व्याकरण पर इनका एक न्यास - ग्रन्थ भी हैं, जो दार्शनिक विचार - सरणि से ओतप्रोत है। ये भोजदेव राजा के समय में धारा नगरी में निवास करते थे। अतः इनका समय ई. की ग्यारहवीं शती है।
वादिराजसूरिः
वादिराजसूरि दिगम्बर-सम्प्रदाय के महान् तार्किकों में से हैं । ये प्रभाचन्द्राचार्य के समकालीन थे । षट्तर्क - षण्मुख, स्याद्वाद - विद्यापति, जगदेकमल्लवादी इनकी उपाधियाँ थीं। इन्होंने अकलंकदेव के 'न्याय - विनिश्चय' पर 'न्यायविनिश्चय पद विवरण' नामक अत्यन्त विद्वत्तापूर्ण मौलिक टीका- ग्रन्थ का निर्माण किया है। इसमें अनेक ग्रन्थों के प्रमाण उद्धृत हैं। बौद्धाचार्य धर्मकीर्ति के प्रमाण - वार्तिक और उस पर प्रज्ञाकर के वार्तिकालंकार की समीक्षा से यह विवरण भरा हुआ है।
चौलुक्य-नरेश जयसिंहदेव की राज सभा में इनका बड़ा सम्मान था। इन्हीं की राजधानी में निवास करते हुए वादिराज ने शक सं. ६४७ ई. से १०२५ में अपना ‘पार्श्वनाथ-चरित' बनाया था।
देवसूरिः
श्वेताम्बराचार्य देवसूरि मुनिचन्द्रसूरि के शिष्य थे। गुजरात में वि.सं. ११४३ में इनका जन्म हुआ था। इन्होंने दिगम्बराचार्य माणिक्यनंदि के परीक्षामुख सूत्र का अनुकरण करके ' प्रमाणनयतत्त्वालोक' नामक न्याय सूत्र - ग्रन्थ आठ परिच्छेदों में रचा है और उस पर 'स्याद्वादरत्नाकर' नामक टीका भी रची है। यह टीका- ग्रन्थ भी जैन - न्याय में विशिष्ट स्थान रखता है। इसकी शैली प्रसन्न है और अनेक ग्रन्थों के उद्धरणों से ओतप्रोत है ।
आचार्य हेमचन्द्रः
आचार्य हेमचन्द्र तो अत्यन्त प्रसिद्ध हैं । इन्होंने गुर्जर -नरेश सिद्धराज जयसिंह को प्रभावित करके अपना अनुयायी बनाया था । उसका उत्तराधिकारी कुमारपाल तो उनका शिष्य ही था। आचार्य हेमचन्द्र की प्रतिभा सर्वमुखी थी। व्याकरण, काव्य, अलंकार, कोष, दर्शन, योग आदि सभी विषयों पर इनकी रचनाएँ उपलब्ध हैं। इनकी