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________________ 18 जैन - न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान आचार्य प्रभाचन्दः आचार्य प्रभाचन्द भी अभयदेवसूरि की टक्कर के विद्वान् थे । इन्होंने अकलंकदेव के 'लघीयस्त्रय' पर न्यायकुमुदचन्द्र नाम का और परीक्षा - मुख सूत्र पर 'प्रमेयकमल मार्तण्ड' नाम का सुविस्तृत टीकाग्रन्थ अत्यन्त प्रांजल - भाषा में निबद्ध किए हैं। पहला ग्रन्थ उनकी दार्शनिकता का और दूसरा उनकी तार्किकता का प्रतीक है। उन्होंने भी अपने ग्रन्थों में स्त्री-मुक्ति, सवस्त्र - मुक्ति और केवलि - भुक्ति का खण्डन जोरदार शब्दों में किया है। शाकटायन-व्याकरण पर इनका एक न्यास - ग्रन्थ भी हैं, जो दार्शनिक विचार - सरणि से ओतप्रोत है। ये भोजदेव राजा के समय में धारा नगरी में निवास करते थे। अतः इनका समय ई. की ग्यारहवीं शती है। वादिराजसूरिः वादिराजसूरि दिगम्बर-सम्प्रदाय के महान् तार्किकों में से हैं । ये प्रभाचन्द्राचार्य के समकालीन थे । षट्तर्क - षण्मुख, स्याद्वाद - विद्यापति, जगदेकमल्लवादी इनकी उपाधियाँ थीं। इन्होंने अकलंकदेव के 'न्याय - विनिश्चय' पर 'न्यायविनिश्चय पद विवरण' नामक अत्यन्त विद्वत्तापूर्ण मौलिक टीका- ग्रन्थ का निर्माण किया है। इसमें अनेक ग्रन्थों के प्रमाण उद्धृत हैं। बौद्धाचार्य धर्मकीर्ति के प्रमाण - वार्तिक और उस पर प्रज्ञाकर के वार्तिकालंकार की समीक्षा से यह विवरण भरा हुआ है। चौलुक्य-नरेश जयसिंहदेव की राज सभा में इनका बड़ा सम्मान था। इन्हीं की राजधानी में निवास करते हुए वादिराज ने शक सं. ६४७ ई. से १०२५ में अपना ‘पार्श्वनाथ-चरित' बनाया था। देवसूरिः श्वेताम्बराचार्य देवसूरि मुनिचन्द्रसूरि के शिष्य थे। गुजरात में वि.सं. ११४३ में इनका जन्म हुआ था। इन्होंने दिगम्बराचार्य माणिक्यनंदि के परीक्षामुख सूत्र का अनुकरण करके ' प्रमाणनयतत्त्वालोक' नामक न्याय सूत्र - ग्रन्थ आठ परिच्छेदों में रचा है और उस पर 'स्याद्वादरत्नाकर' नामक टीका भी रची है। यह टीका- ग्रन्थ भी जैन - न्याय में विशिष्ट स्थान रखता है। इसकी शैली प्रसन्न है और अनेक ग्रन्थों के उद्धरणों से ओतप्रोत है । आचार्य हेमचन्द्रः आचार्य हेमचन्द्र तो अत्यन्त प्रसिद्ध हैं । इन्होंने गुर्जर -नरेश सिद्धराज जयसिंह को प्रभावित करके अपना अनुयायी बनाया था । उसका उत्तराधिकारी कुमारपाल तो उनका शिष्य ही था। आचार्य हेमचन्द्र की प्रतिभा सर्वमुखी थी। व्याकरण, काव्य, अलंकार, कोष, दर्शन, योग आदि सभी विषयों पर इनकी रचनाएँ उपलब्ध हैं। इनकी
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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