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प्राचीन जैनाचार्य और उनका दार्शनिक साहित्य
दार्शनिक क्षेत्र में जो विचारधाराएँ आविर्भूत हुई, उनका समीकरण और परिमार्जन विद्यानन्द ने किया। उनकी 'प्रमाण परीक्षा' अकलंक के प्रकरणों के आधार पर ही रखी गई हैं। इनका एक महत्त्वशाली ग्रन्थ 'तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक' है, जो कुमारिल्ल के 'मीमांसाश्लोकवार्तिक' का स्मरण करा देता है। यह ग्रन्थ अकलंक की मुद्रा से पद-पद पर अंकित है। 'आप्तपरीक्षा' नामक प्रकरण में ईश्वर के सृष्टि-कर्तृत्व की समीक्षा अद्भुद् और अनुपम है। पं० दरबारीलाल जी कोठिया' ने इनका समय ई० सन् ७७५ से ८४० तक निर्धारित किया है। आचार्य माणिक्यनन्दिः ____ आचार्य माणिक्यनन्दि सूत्रकार थे। इनका ‘परीक्षामुख' नामक एक सूत्र-ग्रन्थ उपलब्ध है, जो न्याय-शास्त्र की दृष्टि से निबद्ध किया गया है। इसमें ६ उद्देश्य हैं-- प्रमाण, प्रत्यक्ष, परोक्ष, विषय, फल और तदाभास। माणिक्यनंदि से पहले प्रमाण का लक्षण 'स्वपर व्यवसायि ज्ञान' था। इन्होंने उसमें 'अपूर्व' पद की वृद्धि करके 'स्वापूर्वार्थ व्यावसायि ज्ञान' को प्रमाण माना है। इसमें तो संदेह ही नहीं कि परीक्षामुख के द्वारा अकलंक-न्याय को ही सूत्रबद्ध किया गया है किन्तु उस पर बौद्धाचार्य दिङ्नाग और धर्मकीर्ति के सूत्र-ग्रन्थों का प्रभाव स्पष्ट रूप से लक्षित होता है। जैनदर्शन में न्यायप्रवेश अथवा न्यायबिन्दु के ढंग के एक सूत्र-ग्रन्थ के अभाव की पूर्ति आचार्य माणिक्यनंदि ने ‘परीक्षा-मुख' को रचकर पूरी की । ये विद्यानन्द के समय के लगभग ही हुए हैं। अभयदेव सूरिः . . . श्वेताम्बराचार्य अभयदेवसूरि प्रद्युम्नसूरि के शिष्य थे। इन्होंने सिद्धसेन के 'सन्मति तर्क' पर एक टीका संस्कृत में रची है। उससे इनकी दर्शनशास्त्र विषयक असाधारण विद्वत्ता का पता चलता है। इसमें सैकड़ों दार्शनिक ग्रन्थों का निचोड़ भरा हुआ है। मूल ग्रन्थ से इसकी शैली जुदी प्रकार की है। इसे दसवीं शताब्दी के दार्शनिक वादों का संग्रह कहा जा सकता है। जिस स्त्री-मुक्ति, सवस्त्र-मुक्ति और केवलि-भुक्ति को लेकर दिगम्बर और श्वेताम्बर-सम्प्रदाय में तीव्र मतभेद है उनका समर्थन भी इस ग्रन्थ में किया गया है, इतना ही नहीं, मूर्ति को श्रृंगारित करने का भी समर्थन इस दार्शनिक ग्रंथ में है। अतः यह अपने समय के प्रचलित वादों का एक संग्रह ग्रन्थ है।
१.आप्तपरीक्षा की प्रस्तावना में।