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जैन - न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान
अकलंकदेव ने तत्त्वार्थसूत्र पर तत्त्वार्थवार्तिक तथा समन्तभद्र के आप्तमीमांसा पर अष्टशती नामक भाष्य भी रचे हैं।
हरिभद्रः
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मुनिश्री जिनविजयजी ने आचार्य हरिभद्रसूरि का समय ई. सन् ७०० से του निर्धारित किया है। यह श्वेताम्बर - सम्प्रदाय के एक मान्य आचार्य थे। इन्होंने संस्कृत तथा प्राकृत भाषा में अनेक धार्मिक तथा दार्शनिक ग्रन्थों की रचना की है। कहा जाता है कि इन्होंने १४०० प्रकरण - ग्रन्थ' रचे थे। इनके उपलब्ध ग्रन्थों में विशेष प्रसिद्ध दार्शनिक ग्रन्थ इस प्रकार हैं-- अनेकान्तवाद प्रवेश, अनेकांत-जय-पताका (स्वोपज्ञ वृत्ति सहित), दिङ्नागकृत न्यायप्रवेश की वृत्ति, षड्दर्शनसमुच्चय, शास्त्रवार्ता- समुच्चय ( स्वोपज्ञ वृत्ति सहित ) ।
इनके समय में चैत्यवासी सम्प्रदाय के कारण श्वेताम्बर जैन साधुओं में शिथिलाचार बहुत बढ़ गया था । अपने सम्बोध - प्रकरण में इन्होंने उनकी अच्छी पोल, खोली है और उन्हें कड़ी फटकार बतलाई है। प्रभावक - चरित में इनका जीवन-वृत्त विस्तार से दिया है।
स्वामी विद्यानन्दः
स्वामी विद्यानन्द दिगम्बर-सम्प्रदाय में एक बहुत ही विशिष्ट विद्वान् हो गए हैं। ये ब्राह्मण मीमांसक थे। आचार्य समन्तभद्र के आप्तमीमांसा नामक प्रकरण को सुनकर ये जैनदर्शन से प्रभावित हुए और जैन बन गए । इन्होंने आप्तमीमांसा पर अकलंकदेव के अत्यन्त गूढ़ार्थक अष्टशती भाष्य को आत्मसात् करके अष्टसहस्री नामक ग्रन्थ की रचना की। उसके प्रारम्भ में ही उन्होंने भावना, विधि और नियोंग की जमकर आलोचना की है। यह ग्रन्थ भारतीय दर्शन साहित्य में अपना अनुपमं स्थान रखता है । उसकी प्रसन्न शैली, मार्मिक शब्द - योजना और अकाट्य तर्क-कुशलता देखकर विद्वान् मुग्ध हो जाते हैं। उसमें उन्होंने लिखा है-
श्रोतव्याष्टसहस्री श्रुतैः किमन्यैः सहस्रसंख्यानैः । विज्ञायेत यथैव स्वसमय-परसम - सद्भावः ।।
अर्थात्-एक अष्टसहस्री श्रवण करना पर्याप्त है, अन्य हजारों शास्त्रों के सुनने से क्या लाभ? जिससे जैन और जैनेतर दर्शन का ज्ञान बखूबी हो जाता है। * विद्यानन्द अकलंक के सुयोग्य उत्तराधिकारी थे। अकलंक के अस्त के बाद
१. १४४४ ग्रन्थों की रचना करने का भी उल्लेख मिलता है।