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________________ प्राचीन जैनाचार्य और उनका दार्शनिक साहित्य रूपरेखा स्थिर करके दार्शनिक क्षेत्र में उनके व्यावहारिक उपयोग करने की प्रणाली बतलाई।' प्रमाण' का दार्शनिक लक्षण और फल बतलाया। स्याद्वाद* की परिभाषा स्थिर की। श्रुतप्रमाण' को स्याद्वाद और उसके अंशों को नय बतलाया। सुनय और दुर्नय की व्यवस्था की और अनेकान्त में अनेकान्त की योजना करने की प्रक्रिया बतलाई। ___ स्वामी समन्तभद के पश्चात् आचार्य सिद्धसेन का उदय हुआ। इन्होंने अपने 'सन्मतिं तर्क' नामक प्रकरण में नयों का बहुत विशद और मौलिक विवेचन किया और कथन करने की प्रत्येक प्रक्रिया को नय बतलाकर विभिन्न नयों में विभिन्न दर्शनों का अन्तर्भाव करने की प्रक्रिया को जन्म दिया। अकलंकदेव ने इस दिशा में जो प्रयत्न किया, उसका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है- जो तत्त्व समन्तभद्र की कृति में अव्यक्त थे, उन्हें उन्होंने व्यक्त किया। जैसे, समन्तभद्र की आप्तमीमांसा में सप्तभंगी के प्रमाण सप्तभंगी और नय-सप्तभंगी भेदों की अस्पष्ट-सी सूचना है, अकलंकदेव ने उसे स्पष्ट करके सप्तभंगी के दो विभाग कर दिए। अकलंकदेव के समय में भारतीय न्यायशास्त्र की बहुत उन्नति हो चुकी थी। बौद्धदर्शन का वह मध्यकाल था। शास्त्रार्थों की धूम थी, शास्त्रार्थों में उपयोग किये जाने वाले परार्थानुमान, छल, जाति, निग्रह-स्थान आदि में निपुण हुए बिना जय पाना दुर्लभ था। अतः अकलंकदेव ने उस ओर भी अपना ध्यान दिया। ... सबसे पहले उन्होंने जैनदर्शन की प्रमाण-पद्धति की ओर ध्यान दिया और उसे दार्शनिक क्षेत्र के उपयुक्त बनाया। उसके बाद उन्होंने शास्त्रार्थ में प्रयुक्त होने वाले छल, जाति आदि असद् उपायों का विरोध किया और जय-पराजय की समुचित व्यवस्था की। इन सब बातों का वर्णन तथा स्थान तत्-तत् प्रकरणों में किया जाएगा। .. अकलंकदेव की लेखनी बड़ी गूढ़ है। इसी से उन्होंने अपने स्वोपज्ञ प्रकरण ग्रन्थों पर विवृत्तियां भी बनाई हैं। इनके लघीयस्त्रय, सिद्धिविनिश्चय, न्यायविनिश्चय और प्रमाण-संग्रह नामक मौलिक ग्रन्थ बहुत महत्त्व के हैं। श्वेताम्बरों के जीतकल्पचूर्णि ग्रंथ की चन्द्रसूरि-विरचित टीका में ‘सन्मति तर्क' के साथ सिद्धि-विनिश्चय ग्रन्थ का उल्लेख दर्शन प्रभावक शास्त्रों में किया है। इन मौलिक ग्रन्थों की रचना के सिवा . देखो आप्तमीमांसा . २. "स्व-परावभासकं तथा प्रमाणं भुवि बुद्धिलक्षणम्"--स्वयंभू.श्लो. ६३ ३. "उपेक्षाफलमाद्यस्य शेषस्यादान ।" --आ. मी.का १०२ ४. आ. मी. का १०४ ५. आ. मी. का १०६
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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