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________________ जैन-न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान हैं। उनमें उक्त श्लोक भी है। श्वेताम्बराचार्य वादिदेवसूरि ने भी अपने स्याद्वाद-रत्नाकर' में पात्रकेसरी के नाम से उक्त श्लोक उद्धृत किया है। यह श्लोक अकलंकदेव के 'न्याय विनिश्चय' के अनुमान प्रस्ताव नामक द्वितीय परिच्छेद में भी आया है। न्यायविनिश्चयालंकार नामक विवरण के रचयिता श्रीवादिराजसूरि ने उसकी उत्थानिका में लिखा है कि यह श्लोक पद्मावतीदेवी ने भगवान् सीमंधर स्वामी के समवसरण से आकर पात्रकेसरी को दिया था। इसी ग्रंथ में वादिराजसरि ने यह भी लिखा है कि त्रिलक्षण कदर्थन नाम के शास्त्र में पात्रकेसरी स्वामी ने विस्तार से कथन किया है। अतः स्पष्ट है कि अकलंकदेव से पहले पात्रकेसरी नाम के एक प्रकाण्ड जैन दार्शनिक हो गए हैं। भट्टाकलंकः भट्टाकलंक का स्थान जैन वाङ्मय में अनुपम है। स्वामी समन्तभद्र और सिद्धसेन के पश्चात् इसी प्रखर तार्किक ने अपनी प्रभावक कृतियों से जैन वाङ्मय को समृद्ध बनाया है। ये जैनन्याय के सृजक कहे जाते हैं और उनके नाम के आधार पर श्लेषात्मक भाषा मे जैनन्याय को 'अकलंक न्याय' भी कहा जाता है। जैनों के दोनों सम्प्रदायों के महान् ग्रन्थकारों ने आदर के साथ उनका स्मरण किया है और जैनन्याय में उनके द्वारा समाविष्ट किए गए मन्तव्यों को बिना किसी भेद-भाव के ज्यों का त्यों अपनाया है। इनका समय मैने अनेक प्रमाणों के आधार पर ई. ६२० से ६८० तक निर्धारित किया है। यह बौद्ध नैयायिक धर्मकीर्ति और मीमांसक कुमारिल्लभट्ट के लघु समकालीन थे। इन्होंने अपने ग्रन्थों में उक्त दोनों विद्वानों के मन्तव्यों की आलोचना की है। अकलंकदेव ने जैन-न्याय में किन-किन सिद्धांतों की स्थापना की, यह जानने के लिए अकलंक के पूर्व जैनन्याय की रूपरेखा पर दृष्टि डालना आवश्यक है। पहले बतलाया है कि प्रथम शताब्दी के आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने प्रवचनसार में प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणके सामान्य लक्षण बतलाए थे और सप्तभंगी के सात भंगों की गणना मात्र की थी। उसके बाद तत्त्वार्थ-सूत्रकार ने ‘मतिःस्मृतिः' इत्यादि सूत्र के द्वारा न्यायोपयोगी सामग्री का संकेत मात्र किया था। ___ इसके बाद जैन वाङ्मय के नीलाम्बर में समन्तभद्र और सिद्धसेन नाम के दो जाज्वल्यमान नक्षत्रों का उदय हुआ। समन्तभद्र ने अनेकान्तवाद और सप्तभंगीवाद की १. पृष्ठ-५२१ २. न्यायकुदुदचन्द्र की प्रस्तावना
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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