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________________ प्राचीन जैनाचार्य और उनका दार्शनिक साहित्य अतः ईसा की सातवीं शती के उत्तरार्ध के विद्वान् भट्टाकलंक ने जिस नयचक्र को देखने का उल्लेख किया है, वह मल्लवादीकृत नयचक्र प्रतीत नहीं होता। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणः श्वेताम्बर सम्प्रदाय में आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण एक बहुत समर्थ विद्वान् हुए हैं। इनका विशेषावश्यकभाष्य सुप्रसिद्ध महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। उसी के कारण भाष्यकार नाम से इनकी ख्याति है। यों तो विशेषावश्यकभाष्य आगमिक चर्चाओं से भरपूर है, किन्तु उसकी ज्ञान-विषयक चर्चा जैनदर्शन में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। श्वेताम्बर-परम्परा में जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण और दिगम्बर-परम्परा में भट्टाकलंक देव, ये दोनों ऐसे. समर्थ विद्वान् हो गए हैं जिन्होंने जैनदर्शन की ज्ञान विषयक चर्चा को समृद्ध किया है और उसकी स्थिति को दार्शनिक क्षेत्र के अनुकूल बनाया है। - क्षमाश्रमणजी तर्ककुशल होते हुए भी आगमप्रधान थे। उनका तर्क आगमानुमारी होता था। इसी से उन्होंने अपने पूर्वज तर्क-प्रधान आचार्य सिद्धसेन के मत की कड़ी आलोचना की है। सिद्धसेन ने अपने ‘सन्मति तर्क' में तर्क से यह सिद्ध किया है कि केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दोनों एक ही है, जुदे नहीं हैं किन्तु यह बात श्वेताम्बरीय आगम-परम्परा के विरुद्ध है। अतः गणिजी ने अपने विशेषावश्यक- भाष्य में सिद्धसेन के मत का जमकर खण्डनं किया है। .. . इनके रचे हुए वृहत्संग्रहणी, वृहत्-क्षेत्र-समास आदि और भी अनेक ग्रन्थ हैं। इनका समय ईसा की छठी शताब्दी का अन्तिम भाग है। .: दिगम्बर-परम्परा में पात्रकेसरी नाम के एक समर्थ आचार्य हो गए हैं। उन्हें पात्रस्वामी भी कहते हैं। उन्होंने 'त्रिलक्षण कदर्थन' नाम का एक महत्त्वशाली ग्रंथ रचा था, जो अनुपलब्ध है। बौद्धदर्शन में हेतु का लक्षण त्रैरूप्य माना गया है। बौद्धाचार्य बसुबन्धु ने त्रैरूप्य का निर्देश किया है किन्तु उसका विकास दिङ्नाग ने ही किया था। इसी से वाचस्पति मिश्र उसे दिङ्नाग का सिद्धान्त बतलाते हैं। उसी त्रैरूप्य या त्रिलक्षण का कदर्थन करने के लिए पात्रकेसरी ने उक्त शास्त्र की रचना की। अतः पात्रकेसरी दिङ्नाग (ईसा की पाँचवीं शताब्दी) के बाद के विद्वान् हैं। त्रिलक्षण का कदर्थन करने वाला उनका निम्न श्लोक बहुत प्रसिद्ध है अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ।। बौद्धाचार्य शान्तरक्षित ने अपने तत्त्वसंग्रह के अनुमान परीक्षा नामक प्रकरण में पात्रस्वामी के मत की आलोचना करते हुए कुछ कारिकाए पूर्वपक्ष के रूप से उद्धृत की
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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