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जैन-न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान
द्रव्यों का अन्तर्भाव जैनाभिमत छह द्रव्यों में किया है और बतलाया है कि सब परमाणु एक ही जाति के हैं उन्हीं से पृथ्वी, जल, तेज और वायु बनते हैं।
पूज्यपाद की समाधि-शतक, इष्टोपदेश आदि अन्य रचनाएँ हैं जो आध्यात्मिक हैं। वैद्यक पर भी इनके ग्रन्थ पाए जाते हैं। इसी से ज्ञानार्णव के कर्ता ने पूज्यपाद का स्मरण करते हुए उनके वचनों को शरीर, मन और वचन के मल को ध्वंस करने वाला बतलाया है क्योंकि वैद्यक ग्रन्थ शरीर-मलध्वंसी हैं, समाधिशतक आदि ग्रंथ मनोमलध्वंसी हैं और जैनेन्द्र व्याकरण वचनमलध्वंसी है। आचार्य मल्लवादीः
श्वेताम्बर-सम्प्रदाय में आचार्य मल्लवादी का स्थान बहुत ऊँचा है। इनका बनाया 'द्वादशार यमनयचक्र' नाम का एक महत्त्वपर्ण ग्रंथ सिंहगणि क्षमाश्रमण की टीका के साथ उपलब्ध है। जैनदर्शन में अनेकान्तात्मक वस्तु की व्यवस्था प्रमाण और नय के अधीन है। नयचक्र में जैसा कि उसके नाम ने स्पष्ट है, नंय का प्रतिपादन है। यह ग्रन्थ संस्कृत में है किन्तु मूल नयचक्र उपलब्ध नहीं हैं, केवल उनकी टीका ही उपलब्ध हैं।
श्वेताम्बर' मुनि श्री जम्बूविजयजी ने इस सटीक नयचक्र का पारायण करके उसका परिचय आनन्दप्रकाश ( वर्ष ४५, अंक ७) में प्रकट किया । उस पर से मालूम होता है कि मल्लवादी ने अपने नयचक्र में पद-पद पर भर्तृहरि के 'वाक्यपदीय' ग्रंथ का उपयोग ही नहीं किया, बल्कि भर्तहरि के नाम का उल्लेख भी किया है। भर्तहरि का समय ई.सन् ६०० से ६५० तक माना जाता है। अतः यह स्पष्ट है कि वे इस समय के बाद ही हुए हैं तथा हरिभद्र ने अपनी ‘अनेकान्त जयपताका' की टीका में मल्लवादी का उल्लेख किया है। मुनि जिनविजयजी ने हरिभद्र का समय ई. ७०० से ७७० तक सिद्ध किया है किन्तु ई. ८०० के लगभग बनी हुई भट्टजयन्त की न्यायमंजरी का एक पद्य हरिभद्र के फ्ड्द र्शन-समुच्चय में उद्धृत होने से पं.. महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य ने हरिभद्र की उत्तरावधि ई. ८१० मानी है।
उधर डॉ. सतीशचन्द्र विद्याभूषण ने लिखा है कि मल्लवादी ने बौद्ध विद्वान धर्मोत्तर की न्यायबिन्दु टीका पर धर्मोत्तर टिप्पणक नाम से एक टिप्पण लिखा है। इस पर से डॉ. पी.एल.वैद्य मल्लवादी को धर्मोत्तर के बाद हुआ मानते हैं और प्रभावक-चरित में जो मल्लवादी का समय वीर सं. ८८४ बतलाया है, उसे वे विक्रम संवत् मानने की सलाह देते हैं और कहते हैं कि मल्लवादी का समय ८२७ ई. ही ठीक हो सकता है
१. देखो, अनेकान्त वर्ष ६, कि० ११, पृष्ठ ४४७