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________________ प्राचीन जैनाचार्य और उनका दार्शनिक साहित्य क्योंकि इसमें अनुमान को अभ्रान्त बतलाकर प्रत्यक्ष को अभ्रान्त सिद्ध करने के लिए एक पृथक् कारिका ही रची गई है। यथा-- 'न प्रत्यक्षमपि भ्रान्तं, प्रमाणत्वविनिश्चयात्।' यहाँ 'प्रमाणत्व विनिश्चय' पद पढ़ते ही धर्मकीर्ति के प्रमाण-विनिश्चय का स्मरण बरबस हो आता है। दूसरे, हेतु का लक्षण अन्यथानुपत्तिः 'त्रिलक्षण कदर्थन' ग्रन्थ के रचयिता पात्रस्वामी की देन है जो कि न्यायावतार में भी पाया जाता है। अतः पं. जुगलकिशोर जी मुख्तार का यह मत हमें समुचित ही प्रतीत होता है कि यह ग्रन्थ सन्मति-सत्र से कोई एक शताब्दी से भी बाद का बना हुआ है, क्योंकि इस पर समन्तभद्र स्वामी के उत्तरकालीन पात्रस्वामी (पात्रकेसरी) जैसे जैनाचार्यों का ही नहीं, किन्तु धर्मकीर्ति और धर्मोत्तर जैसे बौद्धाचार्यों का भी स्पष्ट प्रभाव है। मुख्तार सा. ने सन्मति सूत्र के रचयिया सिद्धसेन का समय ई.स. ५०७ से ६०६ तक निश्चित किया है किन्तु पं. सुखलाल उन्हें विक्रम की पाँचवी शताब्दी का विद्वान् मानते हैं। आचार्य पूज्यपादः इनका नाम देवनन्दि था किन्तु यह पूज्यपाद के नाम से विशेष प्रसिद्ध हैं। यह गंग राजा दुर्विनीत के शिक्षा-गुरू थे और दुर्विनीत राजा का राज्यकाल ई.सन् ४८२ से ५२२ तक रहा है। अतः ये ईसा की पाँचवीं शताब्दी में हुए हैं। पूज्यपाद के एक शिष्य वज्रनन्दि ने वि.सं. ५२६(ई.स.. ४७०) में द्राविड़-संघ की स्थापना की थी, जिसका उल्लेख देवसेन ने अपने 'दर्शनसार' में किया है। ... पूज्यपाद भारत के आठ प्रसिद्ध वैयाकरणों में से हैं। इन्होंने जैन्द्र-व्याकरण रचा है तथा 'तत्त्वार्थ-सूत्र' पर सबसे पहली टीका इन्हीं की पायी जाती है, जिसका नाम संर्वार्थसिद्घि है। इस टीका में इन्होंने कई स्थानों पर सांख्य, योग, बौद्ध आदि दर्शनों के कतिपय मन्तव्यों की चर्चा की है। यह चर्चा मोक्ष-स्वरूप, प्रमाणस्वरूप और द्रव्य-व्यवस्था से सम्बन्ध रखती है। प्रथम सूत्र की उत्थानिका करते हुए आचार्य पूज्यपाद ने साँख्य, वैशेषिक और बौद्ध मत के मोक्ष का स्वरूप बतलाकर उन्हें सदोष बतलाया है। ज्ञान के प्रामाण्य की चर्चा करते हुए साँख्य के इन्द्रिय-प्रामाण्यवाद और योगों के सन्निकर्ष प्रामाण्यवाद की आलोचना की है। ____ अन्य दर्शन इन्द्रिय-जनित ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं तब जैनदर्शन. उसे परोक्ष कहता है । पूज्यपाद ने इन्द्रिय-जनित ज्ञान को प्रत्यक्ष मानने में आपत्ति देते हुए जैनदर्शन की मान्यता का समर्थन किया है और यह भी लिखा है कि दीपक की तरह प्रमाण अपना भी प्रकाशन करता है और बाह्य पदार्थों को भी प्रकाशित करता है। इसी तरह पाँचवें अध्याय में जैनाभिमत द्रव्यों की परिगणना कराते हुए वैशेषिक दर्शन के नौ
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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